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मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि श्लोक अच्छे हैं।' मैं अपने आग्रह पर अड़ा रहा और आप मुझे समझाते रहे। आखिर मैं माना ही नहीं, तब आप बोले-'आज से यह प्रतिज्ञा है कि भविष्य मे फिर तुम्हारे लिए श्लोक नही बनाऊंगा।' इस प्रतिज्ञा ने मेरे लिए कविता का द्वार खोल दिया । उस आग्रह पर जब-जब मैं इस श्लोक को पढ़ता हूं तो मुझे मेरे अज्ञान पर हंसी आती है । मैं मानता हूं कि मुनिवर ने जो निष्ठा वरदान देना चाहा, उसे मैं समझ नहीं सका । मेरे न समझने पर भी उन्होने वह वरदान मुझे दे दिया। तब मैं समझ सका कि श्लोक कितना मूल्यवान है
'तात के पुत्र अनेक हुवै पर नन्दन के पितु एक कहावै, ज्यूं घन के बहु इच्छु हुवै पिण चातक तो चित्त मेघ ही ध्यावै। सागर के हुवै मच्छ कच्छ बहु मीन तो चित्त समुद्र ही चावै, त्यों गुरु के बहु शिष्य हुवै पिण एक गुरु नित शिष्य कै भावै ।।'
प्रत्येक व्यक्ति के मन में विकास करने की, आगे बढ़ने की भावना रहती है। एक किशोर में भी यह भावना बीजरूप में रहती है। उसे प्रोत्साहन मिलता है तो वह प्रस्फुटित हो जाती है । मुनिवर मुझे बार-बार कहते हैं-तुम श्रम नही करोगे तो पीछे रह जाओगें और पूरा श्रम करोगे तो सबसे आगे जा सकते हो। पीछे रहने की बात कभी अच्छी नही लगती । मन में एक स्पर्धा जाग गई ओर मैं सदा इस स्थिति मे जागरुक हो गया । एक दृढ़ संकल्प जाग गया—मैं किसी से पीछे नहीं रहूंगा । पूज्य कालूगणी कहा करते थे—'बातेडी की बिगडे'; 'जो बातूनी होता है, बातो में ही रस लेता है, पढ़ने में रस नहीं लेता, वह बिगड़ जाता है।' इस उक्ति ने मन पर चोट की और बातों मे रस कम होने लगा। मुनिवर ने कितनी बार इस सच्चाई को समझाया-अभी तुम बाते करोगे तो जीवन भर दूसरो के नियंत्रण में रहना होगा। इस समय अध्ययन करोगे तो बड़े होने पर स्वतंत्र हो जाओगे । फिर चाहे जितनी बाते करना, कोई टोकने वाला नहीं होगा। युक्ति-संगत बात मन में घर कर जाती है। कोरा आक्रोश या कोरा उलहाना जहां प्रतिक्रिया पैदा करता है वहां यक्ति संगत बात अन्तःकरण को छू लेती है । सचमुच आकर्षण की धारा बदल गई। मन अधिक से अधिक ज्ञानार्जन करने के लिए उत्सुक हो गया।
उन दिनों कंठस्थ करने की परम्परा बहुत प्रचलित थी । मैं एक दिन पूज्य कालूगणी के पास पहुंचा। उन्होंने कहा—'अभी धातुपाठ कंठस्थ किया या नहीं?' मैने कहा—'नहीं किया।' उन्होंने कहा—'कंठस्थ करो।' मैंने उसे कंठस्थ
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