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________________ मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि कालुकौमुदी पूर्वार्ध और अभिधान चिंतामणि का पाठ सुनाया तो वे प्रसन्न ही नहीं हुए, आश्चर्य से भर गए । 'पाठ शुद्ध कैसे हुआ'-इस आश्चर्यपूर्ण प्रश्न का उत्तर कौन देता? मैं पुस्तक पढ़ता नहीं था, केवल पुनरावर्तन करता था। मुझे स्वयं भी पता नहीं कि पाठ शुद्ध कैसे हो गया। आज उस घटना का उत्तर आसान लगता है। आंखें बाह्य जगत के साथ अधिकतम संपर्क स्थापित करती हैं और अधिकतम विक्षेप उत्पन्न करती है। उन दिनों आंखों को सहज ही संयम हो रहा था। बाहर जाने वाली चेतना भीतर लौट रही थी और भीतर की सक्रियता बढ़ रही थी। कोई आश्चर्य नहीं कि जिस शुद्ध रुप में पाठ कंठस्थ किया था, उसी पाठ की चेतना जाग गई और पाठ-शुद्धि अपने आप घटित हो गई। अब मेरी अवस्था बदल चुकी थी। सबसे पीछे रहने वाला मै अब दौड़ मे आगे जाने की तैयारी करने लगा। मैंने निश्चय किया—अब मैं सबसे आगे रहूंगा। मैंने अपने साथियों से पूछा कि वे कालुकौमुदी के उत्तरार्ध का कौन-सा हिस्सा कंठस्थ कर रहे हैं। पर किसी ने बताया नहीं । मैंने कंठस्थ करने की गति तेज कर दी। चातुर्मास पूरा होते-होते मैं प्रायः सबसे आगे चला लया और पीछे किसी से भी नहीं रहा । चातुर्मास के मध्य में एक बार कालूगणी ने हम सब विद्यार्थियों की परीक्षा ली। उसमे भी मेरा स्थाए अच्छा रहा । ‘मांडा' गांव में पाठ के उच्चारण की परीक्षा हो रही थी। पूज्य कालूगणी स्वयं परीक्षा ले रहे थे और मंत्री मुनि मगनलालजी पास में बैठे थे। कुछ विद्यार्थी साधुओं की परीक्षा हो चुकी थी। मैं शौच से निवृत होकर कुछ विलम्ब से आया। मंत्री मुनि ने कहा-नाथूजी ! आओ और इस पाठ का उच्चारण करो । मैंने उस पाठ को पढ़ा और उसमें सफल रहा । मंत्री मुनि बोले-आज तो यह बहुत सफल रहा है । तब पूज्य कालूगणी ने कहा---अभी बच्चा है। अभी सफलता का क्या पता चले? ___ पाली में मैंने पाश्र्वनाथ स्त्रोत की प्रतिलिपि की । वह प्रति पूज्य गुरुदेव के सामने प्रस्तुत थी। उन्होंने उसे देखा ओर प्रसन्नमुद्रा में कहा—'अब तुम्हारी लिपि ठीक हो गई।' मुझे अपनी सफलता पर विश्वास होता गया। पूज्य कालूगणी जोधपुर मे चातुर्मास बिता रहे थे। भाद्रव शुक्ला पूर्णिमा उनके पट्टारोहण का दिन था । हम विद्यार्थी साधु भी गुरुदेव के अभिनंदन मे कुछ बोलना चाहते थे । हमने मुनिवर से प्रार्थना की और उन्होंने हम सबके लिए श्लोक बना दिए । मुझे श्लोक पसन्द नहीं आए। मैंने कहा-'आपने दूसरे साधुओं के लिए श्लोक अच्छे बनाए है, मेरे श्लोक उन-जैसे नहीं है ।' मुनिवर ने कहा, तुम्हारे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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