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. मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि होमियोपैथी दवा लाने के लिए गया है। उन्होंने पूछा-सर्दी बहुत है। कंबल
ओढ़कर गया या नही? संतो ने मेरी निश्रा के उपकरण देखे । कंबल वहीं पड़ा था। पूज्य गुरुदेव से निवेदन किया-कंबल यहीं पड़ा है। वह ओढ़कर नही गया है। पूज्य गुरुदेव ने दो साधुओं को निर्देश दिया—'तुम कंबल ले जाओ
और उसे कंबल ओढ़ा दो।' इस घटना की मेरे किशोर-मन पर एक प्रतिक्रिया हुई। मन में अनुशासन का भाव जागा । पूज्य गुरुदेव मेरे हितों का इतना ध्यान रखते हैं तब उनका प्रत्येक आदेश-निर्देश हित की दृष्टि से ही है। एक बार दो कंबल आए । एक मुझे लेना था और एक मुनि बुद्धमल्लजी को । दोनो एक-जैसे थे। एक बिलकुल साफ था । एक पर कुछ धब्बे थे, मैने कहा—यह साफ कंबल मै लूंगा। मुनि बुद्धमल्लजी ने भी वैसा ही आग्रह किया। हम दोनो का आग्रह देख पूज्य गुरुदेव ने वह किसी को नही दिया। दोनो कंबल अपनी पछेवड़ी (चादर) से ढांक लिये । उनके केवल दो सिरे बाहर निकाले और हम दोनो से कहा—जो इच्छा हो वह एक सिरा पकड़ लो। हमने एक-एक सिरा पकड़ लिया। जो साफ-सुथरा था वह मुनि बुद्धमल्लजी के हिस्से में चला गया। फिर भी मैं अप्रसन्न नही हआ। सहज ही मेरे मन पर एक छाप पड़ी कि समता का मूल्य प्रियता से भी ज्यादा है।
__ मेरी गति व्यवस्थित नहीं थी। मैं चलता तब पैर इधर-उधर पड़ते । दोपहर के समय जब एकान्त होता तब पूज्य गुरुदेव कहते-तुम चलो । मैं चलता तब उनका निर्देश मिलता-पैर ठीक ढंग से रखो । न जाने कितनी बार चलने का अभ्यास कराया । मैं मानता हूं कि मुझे गतिमान् बनाने का ही प्रयत्न था । बहुत छोटी-छोटी बातों से जीवन का निर्माण कैसे होता है, इसे केवल बड़ी बातों में विश्वास करने वाले नहीं समझ पाते। हम लोग स्थान से बाहर जाते है तब 'पछेवड़ी' के गांठ लगाकर जाते हैं। मैं प्रातःकाल पूज्य गुरुदेव के साथ बाहर जाने के लिए तैयार होकर वहां से चला जाता । पूज्य गुरुदेव कहते --गांठ ठीक से नही लगी। वह उसे अपने हाथों से खोलते और फिर अपने हाथों से ही गांठ लगाते । लंबे समय तक यह सिलसिला चलता रहा। इस छोटी-सी घटना ने क्या यह पाठ नहीं पढ़ाया कि मन की जटिल ग्रन्थियों को खोलना हम सीख जाएं और कोई गांठ पड़े तो भी वह इतनी उलझी हुई न हो, जिसे खोलना कठिन बन
जाएं।
मालवा की यात्रा हो रही थी। सर्दी का मौसम था । हमारी संघीय व्यवस्था
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