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________________ मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि ९१ आपने कभी हमें भयभीत नहीं किया। आपको उस स्थिति का पता चल गया, पर हमे यह पता नही चलने दिया कि आपको उस स्थिति का पता चल गया है। अनुशासन एक कला है । उसका शिल्पी यह जानता है कि कब कहा जाए और कब सहा जाए । सर्वत्र कहा जाए तो धागा टूट जाता है और सर्वत्र सहा ही जाए तो वह हाथ से छूट जाता है । इसलिए वह मर्यादाओं की रेखाओं को जानकर चलता है। हमारे संघ में उन्हीं दिनो व्याकरण के दो ग्रन्थ तैयार हुए। मुनि चौथमलजी स्वामी और पंडित रघुनन्दनजी के संयुक्त प्रयास से 'भिक्षु शब्दानुशासन' तैयार हुआ और 'कालु कौमुदी' का पाठ कंठस्थ करना शुरू किया और उसकी साधनिका भी प्रारम्भ की। मेरी स्मृति और बुद्धि – दोनों का विकास हुआ नहीं था। मेरे सब साथी साधनिका को हृदयंगम करते जाते थे और मुझे उसे समझने में बड़ी कठिनाई हो रही थी । बीदासर की घटना है । स्वरान्त पुल्लिंग की साधनिका चल रही थी । हमे बताया गया 'जिन' शब्द की प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय का योग करने पर 'जिनः' रूप बनता है। मैंने पूछा -- हम 'सि' ही क्यों जोडें' ? इसके स्थान पर 'ति' क्यों न जोडें ? कितना अजीब प्रश्न था ! कोई मेधावी छात्र ऐसा प्रश्न नहीं कर सकता। पर मैं बहुत छोटे गांव से निष्क्रमण कर आया था और गांव में मेधा या बुद्धि को विकसित होने का अवसर नहीं मिला, इसलिए ये कठिनाई आ रही थी । आचार्य हरिभद्र ने 'ग्राम' शब्द की व्युत्पत्ति की है - जो बुद्धि आदि गुणों का ग्रास करता है, वह ग्राम है। बौद्धिक विकास के लिए एक वातावरण चाहिए। ग्राम में वैसा वातावरण नहीं मिलता, इसलिए ग्राम मे रहने वालों की बुद्धि कुंठित हो जाती है। उनमे बुद्धि का बीज नही होता, ऐसा नहीं है । उसे प्रस्फुटित होने की सामग्री नहीं मिलती, यह एक सच्चाई है । मैं 'एक छोटा बच्चा था। मुझे बुद्धि के विकास और कुंठा -- ये दोनों अवसर नही मिले । मेरी मन्दता का कारण शायद अवस्था के साथ जुडा हुआ था। एक निश्चित । अवस्था से पहले बुद्धि का विकास नहीं होना मेरी नियति को मान्य था । पूज्य कालूगणीजी को मैं बहुत प्रिय था। वे मुझ पर अनुशासन कम करते, करूणा दृष्टि से प्लावित अधिक करते । श्रीडूंगरगढ़ की घटना है। सर्दी का मौसम मै पूज्य गुरूदेव के सामने बैठा था । उन्होंने मेरे भावों को पढ़ा और पूछा- 'क्या नाश्ता नहीं मिला ?' मैंने कहा - 'नहीं मिला ।' क्या आजकल बन्द हो गया ? मैंने कहा—' हां अभी बन्द है ।' पूज्य गुरूदेव ने तत्काल साध्वी सोनांजी था । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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