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दृष्टि : मेरी सृष्टि खड़ा हो जाना बहुत असह्य हो जाता, तब पानी पीने का या और किसी काम का बहाना लेकर मैं इधर-उधर घूम आता । यह स्थिति बहुत लम्बे समय तक नहीं चली, लगभग दो-ढाई वर्ष तक वह चली । उसके बाद हमें यथार्थ का कुछ-कुछ अनुभव होने लगा। जब तक यथार्थ का अनुभव नही हुआ तब तक इस कठोर अनुशासन में रहना बडा कठिन लगा। एक बार हम पूज्य कालूगणीजी के पास पहुंचे । हमने उनके चरणो मे एक विनम्र प्रार्थना रखी । हमनें कहा – 'गुरूदेव ! तुलसी स्वामी हम पर कड़ाई बहुत करते हैं।' पूज्य गुरूदेव ने पूछा—'किसलिए ?' हमनें कहा—'पढ़ाने के लिए।' फिर पूछा - ' और किसी के लिए तो कड़ाई नही करता ? ' हमने कहा - 'नहीं ।' तब गुरूदेव बोले- 'पढ़ाई के लिए तो वो करेगा, इसमे तुम्हारी नहीं चलेगी । ' हम आवाक् रह गए। आए थे आशा लिए, हाथ लगी निराशा | आचार्यवर ने कहानी सुनाई - राजा के पुत्र के सिर पर अध्यापक ने अनाज की पोटली रख दी। पढ़ाई समाप्त हुई । विद्यार्थी की परीक्षा के लिए अध्यापक राज-सभा में जा रहा था। बीच में अनाज की दुकान आयी । गेंहू खरीदे । उनकी पोटली बांधी और विद्यार्थी राजकुमार को उसे उठाने को कहा । वह अस्वीकार कैसे करता, पर वह लद गया भार से और लज्जा से । परीक्षा हुई । वह सब विद्यार्थियों में उत्तीर्ण हुआ। राजा बहुत प्रसन्न हुआ अध्यापक से पूछा - 'राजकुमार ने विद्यार्जन कैसे किया ?' अध्यापक ने कहा- 'बहुत अच्छे ढ़ग से किया, विनयपूर्वक किया।' राजकुमार से पूछा - 'गुरूजी ने तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया ?' राजकुमार बोला- ' बारह वर्ष तक तो अच्छा किया पर आज..... ।' राजा ने पूछा- 'आज फिर क्या हुआ ?' राजकुमार ने पोटली की बात सुनाई और राजा का चेहरा तमतमा उठा। पूछा तो उत्तर दिया- 'वह भी पढ़ाई का एक अंग था । वह पाठ राजकुमार को ही पढ़ाना था। आगे चलकर दंड वही देगा । भार उठाने में कितना का कष्ट होता है, इसका भान कराना था । यह थान हो गया है। अब वह किसी से अधिक भार नहीं उठवाएगा।' राजा के पास कहने के लिए अब कुछ भी नहीं था । आचार्यवर ने कहा— अध्यापक राजकुमार भी पोटली उठवा सकता है, तब फिर....
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हमारे पास भी वापस कहने को कुछ नहीं था । हम चले आए मन मे और चिन्ता पैदा हो गई कि मुनिवर को पता चल जाएगा तो वे क्या कहेंगे ? पढ़ने को कैसे जाएं ? सूर्योदय हुआ । श्लोक वाचन के लिए सकुचाते - से गए और बांचकर बिना कुछ उलाहना लिए आ गए। कई दिनों तक मन मे भय रहा, पर
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