SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि 1 कंठस्थ करने लग जाते। कभी पता नहीं चलता तो उलाहना मिलता । कभी-कभी हम एक साधु को सीढ़ियों के पास बैठा देते। वह मुनि तुलसी के आने की सूचना देता और हम सब अपने अध्ययन मे लग जाते। यदि हमारे मन में उनके प्रति प्रीति नहीं होती तो हम उलाहना के भय से मुक्त हो जाते। जो केवल डरता है वह ढीठ बन जाता है । डर के पीछे भी एक बन्धन सूत्र होता है और वह है - प्रीति । छापर की घटना है । एक दिन मुनिवर ने मुझे कहा- 'आज तुम्हे 'विगय' नही खानी है ।“ यह एक भूल का प्रायश्चित्त था और मेरे जीवन में ऐसे ' प्रायश्चित्त का यह पहला ही अवसर था । भोजन का समय हुआ । मुनिश्री चम्पालालजी, मुनिवर और मैं - तीनों एक साथ भोजन करते । गोचरी में आम का रस आया । 'मैं नही खाऊं और वे खाएं'– ये उन्हें अच्छा नहीं लगा । उन्होनें कहा – तुम खाओ । मैंने कहा— नहीं खाऊंगा । आपने कहा था कि तुम्हे विगय नहीं खानी है तो अब मैं कैसे खाऊं ? मैं अपनी बात पर अड़ गया । हमारी भोजन की मंडली बडी थी । मुनिश्री मगनलालजी की सन्निधि में लगभग बीस-पच्चीस साधु एक मंडली में भोजन करते थे । उन सब के बीच कोई बातचीत नहीं की जा सकती। मुनिवर ने कुछ शब्दों के संकेतों से मुझे विवश कर दिया और मैं अपने बालहठ को छोड़ने के लिए तैयार हो गया। एक किशोर के विकास में सहयोगी बनना बहुत कठिन बात है । उसके मन को तोड़कर चलने वाला भी उसका सहयोगी नहीं हो सकता । सहयोगी वह हो सकता है जो सब कुछ उसके मनचाहा भी न करे और सब कुछ अनचाहा भी न करे, दोनों के बीच संतुलन स्थापित कर सके । अध्ययन में मन कम लगता । हमने ( मैंने तथा मुनि बुद्धमलजी ने ) अभिधान चिंतामणि को कंठस्थ करना शुरू किया। बड़ी मुश्किल से दो-तीन श्लोक कंठस्थ कर पाते । हमरी रुचि इधर-उधर घूमने और बातें करने में ज्यादा रही। हमे इस स्थिति से बचाने के लिए मुनवर हमारे साथ श्लोक रटते रहते । दो-तीन श्लोक रटने में आधा घंटा का समय बीत जाता, फिर दिन भर हम छुट्टी ही मनाते । हंसना और मुस्काना—यह कोई सहज ही आदत बन गई थी । बहुत बार ऐसा होता कि कुछ शब्दों के उच्चारणकाल में हम हंस पड़ते। तब हमारा पाठ बंद हो जाता। हम सोनते बहुत अच्छा हुआ । फिर हमें राजी कर अध्धयन कराया जाता । किशोरावस्था की कुछ जटिल आदतों को यदि मनोवैज्ञानिक ढंग से न सम्भाला जाता तो शायद हम बहुत नहीं पढ़ पाते। हम जब श्लोक कंठस्थ नहीं करते तो हमें खड़ा कर दिया जाता । खड़ा रहना मेरे लिए बहुत कठिन था । आधा घंटा तक 1 I Jain Education International For Private & Personal Use Only ८९ www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy