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________________ मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि ८८ इसलिए मैं मुनि बन गया । अथवा जन्म-मरण के चक्कर से डरकर मैं मुनि बन गया । अथवा नरक के भय और स्वर्ग के प्रलोभन से मैं मुनि बन गया। मैं एक ही उत्तर देना पसंद करूंगा और वहीं उत्तर देता रहा हूं कि कोई अज्ञात की प्रेरणा थी और ज्ञात जगत की घटना घटी और मैं मुनि बन गया । हम अज्ञात को छोडकर केवल ज्ञात को समझने का प्रयत्न करते हैं, केवल उसके आधार पर निष्कर्ष निकालना चाहते हैं, वह सच होने पर भी अधूरा सच होता है, पूरा सच नहीं होता । मैं मुनि बनने और मुनि तुलसी की छत्रछाया में नयी जीवन-यात्रा चलाने को एक अज्ञात की प्रेरणा मानता हूं। ज्ञात जगत् में इसका समाधानकारक उत्तर मुझे उपलब्ध नही होगा । मेरे अध्ययन का प्रारंभ दसवैकालिक से हुआ। वह एक जैन आगम है । भाषा उसकी प्राकृत है और उसमें मुनि की जीवन-यात्रा सांगोपांग निरूपित है । मेरा अध्ययन बहुत मंथर गति से चला। पूरे दिन में उसके दो-तीन श्लोक कंठस्थ कर पाता था। इस मंथर गति से मुनि भी प्रसन्न नहीं थे और पूज्य कालूगणी भी प्रसन्न नहीं थे । वे चाहते थे मैं त्वरित गति से आगे बढूं । कुछ दिनो तक मैं उनकी चाह को पूरा नहीं कर सका। संस्कृत और प्राकृत का कभी नाम भी नही सुना था । अपरिचित होने मे प्रारंभिक कठिनाई होती है । मैंने भी उस कठिनाई का सामना किया। थोड़े दिनों बाद वह कठिनाई दूर हो गई। मेरी गति तेज हुई और मैं प्रतिदिन आठ-दस श्लोक कंठस्थ करने लगा । अब सब प्रसन्न थे । 1 - | मैंने अनुभव किया कि मैं उपालंभ और साधुवाद, भय और प्रेम-दोनों का मिश्रित जीवन जी रहा हूं । मुनि तुलसी प्रमाद होने पर उलाहना भी बहुत देते और सही काम करने पर साधुवाद भी देते। मेरे प्रति उनके अन्तःकरण में आकर्षण भी था और वह अनुशासनात्मक भय भी बनाए रखते थे । नीति का वचन है — भय के बिना प्रीति नहीं होती । मेरा अनुभव यह है कि प्रीति के बिना भय नहीं होता । दोनों सचाइयां अधूरी है, पर दोनो में सत्यांश अवश्य है । पूज्य कालूगणीजी जोधपुर चातुर्मास कर रहे थे । इस समय मुनि तुलसी की पूरी पाठशाला चल रही थी । उसमें आठ-दस साधु पढ़ रहे थे । अनुशासन कठोर था । केवल अध्ययन | परस्पर बातचीत करने के लिए कोई समय नहीं था । हम पढ़ते-पढ़ते थक जाते । मन होता परस्पर मिलें और बातचीत करें । मुनि तुलसी के सामने बातचीत कर नहीं सकते थे । वे प्रयोजनवश जब दूसरे स्थान पर जाते तो हम बातचीत करने बैठ जाते। उनके आने का पता चलता तब फिर सब अपना पाठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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