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मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि
से कहा - 'नाश्ता ला दो ।' टूटी हुई श्रृंखला जुड़ गई। नाश्ता कोई बडी बात नहीं थी । प्रश्न है स्नेह का, करुणा का । यदि बालक को स्नेहपूर्ण वातावरण मिलता है तो विकास की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं । ताडना में सिकुडन पैदा होती है और स्नेह में विकास । ताडना परिस्थिति विशेष में होने वाली विवशता है । स्नेह मनुष्य का निसर्ग है । स्नेह की भावना के साथ जल का सिंचन पा एक पौधा भी लहलहा उठता है तब मनुष्य की बात ही क्या ! मैंने ताडना बहुत कम पाई और स्नेह बहुत अधिक पाया । विकास का निमित्त पाने में मैं सचमुच सौभाग्यशाली रहा हूं ।
पूज्य कालूगणी का एक विशेष स्वभाव था । अपने पास बैठे बाल मुनियों को वे कुछ न कुछ सिखाते रहते । एक बार उन्होंने हमें संस्कृत का एक श्लोक सिखाया ---
'बालसखित्वमकारणहास्यं स्त्रीषुविवादमसज्जनसेवा । गर्दभयानमसंस्कृतवाणी, षट्सु नरो लघुतामुपयाति ॥'
इस श्लोक का कुछ अनुदान हमें मिला। हम लघुता की दिशा मे नहीं बढ़ना चाहते थे । संस्कृत के प्रति हमारा अनुराग बढ़ा और अकारण हंसने की आदत भी बदलने लगी ।
एक बार उन्होंने हमें दोहा सिखाया
'हर डर गुरू डर गाम डर, डर करणी में सार । तुलसी डरे सो ऊबरे, गाफिल खावे मार ॥
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इस दोहे ने एक भावना पैदा की। हम मुनि तुलसी से डरने लगे । मैं गोस्वामी तुलसी से परिचित नहीं था । मुनि बुद्धमलजी भी परिचित नहीं थे । हमने उसका यही अर्थ लगाया कि पूज्य गुरूदेव हमें यह संबोध दे रहे हैं कि जो तुलसी से डरता है वह उबर जाता है। सचमुच हमने इस संबोध को उबारा और हम उबर
गए ।
पूज्य कालूगणी हमारे अध्ययन के बारे मे कभी-कभी जानकारी लेते थे । वे मुख्य रूप से मुनि तुलसी पर ही निर्भर थे। बीदासर की घटना है । पूज्य गुरूदेव ने सभी बाल साधुओं को हस्तलिपि दिखलाने को कहा। मेरे सहपाठी और समवयस्क सभी साधुओ की हस्तलिपि सुन्दर हो गई थी। मेरी हस्तलिपि सुन्दर नही बन पायी । मेरी हस्तलिपि जैसे ही सामने रखी गई, पूज्य गुरूदेव
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