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मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि कहानी बचपन से शुरू होती है। कोई बच्चा आगे क्या होगा, यह सब नियति के गर्भ में होता है । उसका स्पष्ट बोध स्वयं को भी नहीं होता और दूसरों को भी नहीं होता । उसका पूर्वाभ्यास स्वंय को भी हो जाता है । मैं लगभग आठ वर्ष का था। एक अज्ञात भिक्षु आया। वह घर-घर भिक्षा मांगता घूम रहा था। वह मेरे पड़ोसी के घर पहुंचा । मेरे एक साथी को देखकर वह बोला-'यह बच्चा एक साल के बाद चल बसेगा।' उसने मुझे देखकर कहा—'यह बालक योगी होगा, योगिराज होगा।' मैं नही जानता था, योगी क्या होता है ? इन दोनो घटनाओ का लोगों को पता चला। बात सारे लोगो में फैल गई। पर एक अनजाने भिक्षु की बात थी, इसीलिए उस पर किसी ने विशेष ध्यान नहीं दिया। सप्ताह बीता
और मेरा साथी अचानक इस संसार से चल बसा। तब लोगों का ध्यान उस भिक्षु की भविष्यवाणी की ओर गया । उसे खोजा, पर वह कहीं दूसरी जगह जा चुका था। उसका कोई पता नहीं चला।
मेरी बहन का विवाह था। घर में काफी लोग आए हुए थे । मेरे मन मे एक तरंग उठी और मैं आंखों पर रूमाल बांधकर चलने लगा । जब दरवाजे के पास पहुंचा तो सिर भीत से टकरा गया । ललाट के मध्य में चोट लगी, ठीक उसी स्थान पर जो ज्योति-केन्द्र (पिनियल ग्लैन्ड) का स्थान है। कभी-कभी बाहर का आघात भी भीतर की चेतना को जगाने का निमित्त बन जाता है । चेतना बाहर में नहीं जागी हो, पर भीतर में उसका प्रस्फुटन शुरू हो गया। ___ नौ वर्ष पूरे हो गए । 'मेमनसिंह'( वर्तमान में बंगला देश) में मेरी चचेरी बहन का विवाह था । उस उद्धेश्य से मां और चाचा के साथ मैं वहां गया । बीच में हम कलकत्ता पहुंचे। वहां हम सभी बूआ के पास ठहरे । भोजन के पश्चात् मेरे चाचा और उनकी दुकान के कर्मचारी कलकत्ता के बाजार में सामान खरीदने गए । मैं भी उनके साथ चला गया। वे दुकानो में सामान खरीदते रहे और मैं इधर-उधर देखता रहा। रास्ते में चलते-चलते मैं कही रुक गया और वे आगे बढ़ गए। न उनको ध्यान रहा और न मुझे ध्यान रहा । मैं अकेला रह गया।
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