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मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि वाला अनासक्त पुरूष कर्म-शरीर को प्रकंपित, कृश और जीर्ण कर देता है। (४/३२) । आत्मा की संप्रेक्षा करने वाला अनासक्त हो जाता है(४/३२)।
आचारांग सूत्र में विपश्यी और संप्रेक्षा—ये दोनों शब्द मिलते हैं । विपश्यना ध्यान की साधना के बाद इन दोनो शब्दों की गहराई में जाने और उनका हार्द समझने का अवसर मिला। एक ही श्रमण परम्परा की दो धाराओं में विपश्यना या प्रेक्षा का प्रचलन होना आश्चर्य की बात नहीं है। आश्चर्य की बात यह है कि बौद्ध धारा ने उसे अब तक अविच्छिन्न रख लिया और जैन धारा उसे अविच्छिन नहीं रख सकी । उस विस्मृत तत्व को पुन: स्मृति-पटल पर उतारने में विपश्यना शिविर की साधना निमित्त बनी। इसे मैं सबसे बड़ा लाभ मानता हैं।
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