________________
समर्पण का सूत्र : चतुर्विंशतिस्तव चतुर्विंशतिस्तव मंगल है । दूसरों शब्दों में यह हमारा समर्पण है । लोगस्स का सूत्र अर्हता का सूत्र है, समर्पण का सूत्र है । लोगस्स सूत्र में 24 तीर्थंकरों के प्रति एक साधक के द्वारा समर्पण किया गया है। साधना के क्षेत्र में समर्पण का बहुत बड़ा मूल्य होता है । जिसमें श्रद्धा और समर्पण—ये दो तत्त्व नहीं होते, वह व्यक्ति साधना के क्षेत्र में कभी नहीं उतर सकता। साधना के क्षेत्र में पहला पैर रखने से पूर्व उसे श्रद्धा और समर्पण का अभ्यास करना होता है। श्रद्धा का अपना मूल्य होता है, बहुत बड़ा मूल्य होता है । मैं श्रद्धा के विपक्ष में भी बहुत चर्चा किया करता हूं। किन्तु वह एक क्षेत्र का भेद है । एक विपर्यय हो गया, एक उल्टी बात हो गयी है कि जहां श्रद्धा होनी चाहिए, वहां हमारे मन में सन्देह हो गया । जहां सन्देह और तर्क होना चाहिए, वहां हम श्रद्धा का प्रयोग कर रहे हैं। जहां सत्य की खोज, सत्य की शोध का प्रश्न है, वहां श्रद्धा की कोई आवश्यकता नहीं है। वहां तो शल्य-चिकित्सा होनी चाहिए। मैंने भगवान् महावीर, आचार्य भिक्षु के विचारों की शल्य-चिकित्सा की तो ऐसा लग सकता है कि मुझमें श्रद्धा नहीं है। मैं मानता हूं कि इस क्षेत्र में श्रद्धा होनी ही नहीं चाहिए। जहां सत्य को समझना है, वहां हमारे सामने कसौटी होनी चाहिए, वहां हमारे हाथ में तुला होनी चाहिए कि हम तोल सकें, कसौटी कर सकें। वहां हाथ में चाकू होना चाहिए कि हम शल्य-चिकित्सा कर सकें, चीड़-फाड़ कर देख सकें । सत्य को स्वीकार ऐसे ही नहीं किया जाता। उसे स्वीकार करने के लिए बहुत खपने-तपने की जरूरत होती है।
आचार्य भिक्षु को एक भाई गालियां दे रहा था। लोगों ने कहा-महाराज ! कितना उदंड है यह आदमी ! निष्प्रयोजन आपको गालियां बक रहा है । आचार्य भिक्षु तो बहुत मर्मज्ञ थे। वे ऊपर को नहीं देखते थे, चमड़ी को नहीं देखते थे। वे अन्तस्तल तक पहुंचते थे, गहराई तक जाकर देखते थे। उनकी प्रज्ञा इतनी जागृत थी कि भीतर में जाकर वस्तु का मूल्यांकन करती थी। आचार्य भिक्ष ने कहा...-~जो गालियां दे रहा है, वही मेरा सबसे बड़ा भक्त होने वाला है। लोगों ने कहा—यह कैसे? आचार्य भिक्षु ने कहा—कोई आदमी कुम्हार के घर
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only