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मंगल पाठ अच्छा नहीं लगता, क्योंकि तुम अपनी बिरादरी के छोटे-मोटे सदस्यों को तिरोहित कर अकेले चमकने में आनन्द मानते हो।
कितने मर्म की बात कवि ने कही है। वह प्रकाश, वह ज्ञान अच्छा । नहीं होता जो केवल चमके, सबको छिपा दे। मैं बहुत बार कहा करता हूं--आचार्य तुलसी की सबसे बड़ी महानता यही है कि वे अकेले नहीं चमके। पूरे संघ को चमकाने के साथ-साथ चमके हैं। अकेले चमकते तो शायद वही स्थिति होती। इतिहास में ऐसा हुआ है । कोई एक मुखिया हो गया तो फिर उसका यही प्रयत्न होता है कि दूसरा और कोई नाम उभर कर न आए, सबको पीछे ही धकेलने की कोशिश होती है । ऐसे अनेक व्यक्ति हमें भी यही सलाह देने पहुंच जाते हैं । वे कहते हैं, “महाराज ! ध्यान दो, आप इतने साधु-साध्वियों को पढ़ा रहे हैं, किन्तु एक दिन ये ऐसे सिर पर हावी हो जाएंगे कि आप पश्चात्ताप करेंगे। नीति की बात तो यह है कि एक आचार्य या कुछ प्रमुख साधु पढ़ गए, बाकी को तो पातरा ढोने के काम में ही लगाए रखो, जिससे कि ठीक-ठाक काम चलता रहे ।” ऐसे सझाव एक नहीं, अनेक बार आए हैं। एक दृष्टि से सोचें तो यह ठीक है। राजनीति की दृष्टि से तो यह ठीक है कि जनता को इतना बेवकूफ बनाए रखो कि वह अपने-अपने अधिकारों की मांग न कर सके। कुर्सी बची रहे और राज्य-सत्ता कायम रहे । किन्तु इस प्रकार का चिन्तन सर्वथा अनुचित है । वास्तव में वही व्यक्ति महान् होता है जो स्वयं के साथ-साथ दूसरों को भी चमकाता है । ___वही ज्ञान मंगल होता है, जो दूसरों को जगाए, बुझाए नहीं । वही आनन्द मंगल होता है, जो दूसरों में दुःख न बांटे बल्कि उनमें आनन्द बिखेरे । वही शक्ति मंगल होती है जो दूसरों के लिए पीड़ाकारक न बने । इसीलिए हम ‘चत्तारि मंगलं' सूत्र को मंगल मानते हैं और प्रवृत्ति के प्रारम्भ में इस महामंगल का उपयोग करते
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