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________________ अहिंसक समाज-संरचना कैसे होगी अग्रसर करता है । व्रत स्वभाव-पक्ष से हित-पक्ष की ओर जोने की साधना है या यूँ कहना चाहिए- विकास और स्वभाव में विरोध होता है, तब सामाजिक विधि का निर्माण होता है तथा स्वभाव और हित में विरोध होता है तब आध्यात्मिक या नैतिक व्रतों की साधना अपेक्षित होती है। विकार, स्वभाव और हित को परिभाषा की संज्ञा में अतिमात्रा और अमात्रा कहा जा सकता है। उदाहरणस्वरूप वासना की अति मात्रा-पूर्ति विकार है । वासना की परिमित मात्रा-पूर्ति शरीर का स्वभाव है। वासना-विजय या वासना की अमात्रा हित है । स्वभाव की दृष्टि से. विकार अकर्तव्य है और हित की दृष्टि से स्वभाव अकर्तव्य है। शरीर-स्वभाव की दृष्टि से अति मात्रा में खाना अकर्त्तव्य है पर आवश्यक व उपयोगी खाना अकर्तव्य नहीं है । परन्तु हित की दृष्टि से परिमित खाना भी अकर्तव्य हो जाता है । दूसरे के लिए पहले का त्याग (उत्तरवर्ती के लिए पूर्ववर्ती का त्याग) कर्तव्य की विशेष प्रेरणा से ही होता है । व्यक्ति में विवेक जागरण का उत्कर्ष होता है, तभी वह स्वभाव के लिए विकार का और हित के लिए स्वभाव का त्याग करता जिस ओर मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा हो, वहां उसका कर्तव्य माना जाए तो अकर्तव्य जैसा कुछ शेष ही नहीं रहता। शोषण, संग्रह और सत्ता की ओर मनुष्य की जैसी स्वतः स्फूर्त प्रेरणा होती है, वैसी असंग्रह के प्रति नहीं होती। केन्तु यह विकार के मोहक आवरण से ढकी हुई स्वाभाविक प्रेरणा है, इसलिए यह अकर्तव्य है। वैध ढंग से व्यापार, परिग्रह और अधिकार प्राप्ति की जो स्वाभाविक प्रेरणा होती है, उसके पीछे आवश्यकता या उपयोगिता की सामान्य भावना होती है, इसलिए वह सामान्य कर्तव्य है । अपरिग्रह और असत्ता समाज के वर्तमान मानस में स्वाभाविक प्रेरणा-लभ्य नहीं है, इसलिए ये प्रधान कर्तव्य हैं। अणुव्रती समाज-व्यवस्था में ये तीन भूमिकाएं होंगी-अकर्तव्य का वर्जन, सामान्य कर्तव्य का नियन्त्रण, प्रधान कर्तव्य का विकास । प्रधान लक्ष्य जीवन की आवश्यकताएं नहीं छूटती-यह निर्विकल्प है। विकल्प उनके पूर्ति-क्रम में होते हैं। पूर्ति की पद्धति सामाजिक होती है, उसके पीछे उसकी दार्शनिक मान्यताएं होती हैं । इच्छा पर नियन्त्रण करना सभी समाजों में मान्य होता है। यह समाज की एकरूपता है । नियन्त्रण का तारतम्य और उसके प्रेरक हेतु सब में एकरूप नहीं होते । नियन्त्रण के चार प्रकार हैं-(१) भौतिक, (२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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