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________________ १२० मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि राजनीतिक, (३) सामाजिक, (४) नैतिक या आध्यात्मिक । उनके प्रेरक हेतु क्रमशः ये हैं-प्रकृति-भय, राज्य-भय, समाज- भय और आत्मपतन-भय । 1 इनमें पहले तीन भय बाहरी और आखिरी भय आन्तरिक हैं । प्रकृति, राज्य और समाज की मर्यादा का उल्लंघन करने वाला उनके द्वारा दण्ड पाता है । इसलिए जहां दण्ड की आशंका हो, वहां उनकी मर्यादा का पालन और जहां वह न हो वहां मर्यादा की अवगणना भी हो जाती है । आत्मिक - नियन्त्रण दण्ड प्रेरित नहीं होता । वह व्यक्ति का अपना आन्तरिक विवेक-जागरण है। इसलिए उसमें बाहर भीतर का द्वैध नहीं होता । प्रकाश या तिमिर, परिषद् या एकान्त में बुराई से बचने की समवृति हो जाती है, यही आध्यात्मिक भय है । यह भय रखने वाला बाहर की किसी भी शक्ति से नहीं डरता । सही माने में वह अभय है । अहिंसक समाज-व्यवस्था में नियन्त्रण का प्रेरक हेतु आत्मपतन का भय है । आवश्यकताएं अधिक रहें, वैसी दशा में नैतिक निष्ठा बन नहीं सकती । उनके बिना अहिंसा केवल औपचारिक हो जाती है । इसीलिए आवश्यकताएं कम करना भी अहिंसक समाज-व्यवस्था का लक्ष्य है। अधिक आवश्यकताएं निर्वाह - मूलक नहीं होतीं । वे इच्छा पर नियन्त्रण न कर सकने की स्थिति में होती हैं। यह रोग का मूल है। इच्छा पर नियन्त्रण नहीं होता, तब आवश्यकताएं बढ़ती हैं । जब आवश्यकताएं बढ़ती हैं, नैतिक निष्ठा कम होती है। नैतिक निष्ठा कम होती हैं, अहिंसा औपचारिक बन जाती है । औपचारिक अहिंसा से वह शान्ति नहीं मिलती, जो उससे मिलनी चाहिए। इसलिए अहिंसक समाज व्यवस्था का सबसे पहला या प्रधान लक्ष्य है-इच्छा का नियन्त्रण । 1 क्या अहिंसक समाज रक्षा के लिए मनुष्य पुलिस और सेना पर निर्भर होगा या उसे उनकी अपेक्षा नहीं होगी ? इस प्रश्न पर मानवीय प्रकृति तथा समग्र विश्व के संदर्भ में विचार किया जा सकता है। देश की आंतरिक सुरक्षा का दायित्व पुलिस पर और बाहरी आक्रमण की सुरक्षा का दायित्व सेना पर होता है । अहिंसक समाज की स्थापना होने पर आंतरिक मामलों में सेना के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होगी और पुलिस की आवश्यकता भी कम-से-कम होगी । अहिंसक समाज में अणुव्रत का यह व्रत अनिवार्यतः पालनीय होगा - " मैं किसी पर आक्रमण नहीं करूँगा और आक्रामक नीति का समर्थन भी नहीं करूँगा ।" अहिंसक समाज में सेना आक्रमणकारी नहीं होगी। उसका काम केवल अपनी सीमा की सुरक्षा करना हो होगा। पुलिस और सेना से मुक्त समाज की कल्पना प्रिय बहुत पर व्यवहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003081
Book TitleMeri Drushti Meri Srushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size8 MB
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