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मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि पहले संयमी होगा। अतः वह अवास्तविक आवश्यकताओं का अंबार खड़ा नहीं करेगा। उसका संग्रह दो नियामक तत्त्वों से नियंत्रित होगा—(१) अर्जन के साधनों की शुद्धि, (२) विसर्जन।
__ अहिंसक समाज में साधन-शुद्धि का साध्य से कम मूल्य नहीं होगा। अतः अहिंसक समाज का सदस्य अर्जन के साधनों की शुद्धि का पूर्ण विवेक रखेगा। वह व्यवहार में प्रामाणिक रहेगा—(१) किसी वस्तु में मिलावट कर या नकली को असली बताकर नहीं बेचेगा । (२) तोल-माप में कमी-बेशी नहीं करेगा । (३) चोर-बाजारी नहीं करेगा। (४) राज्य-निषिद्ध वस्तु का व्यापार व आयात-निर्यात नहीं करेगा । (५) सौंपी या धरी (बन्धक) वस्तु के लिए इन्कार नहीं करेगा।
अर्जन के साधनों की शुद्धि रखते हुए उसे जो अर्थ प्राप्त हो, वह उसके लिए अग्राह्य नहीं होगा। अहिंसक समाज की आवश्यकता व्यक्तिगत संयम के द्वारा नियन्त्रित होगी। अतः उसका सदस्य अतिरिक्त अर्थ का विसर्जन कर देगा। वह विसर्जित अर्थ सामाजिक कोष के रूप में संग्रहीत होगा। समाज-कल्याण के लिए उसका उपयोग होता रहेगा । भगवान् महावीर ने अहिंसा व्रत के दो सूत्रों का प्रतिपादन किया था—(१) अल्प आरम्भ, (२) अल्प परिग्रह । वर्तमान की भाषा में अल्प आरम्भ लघु व्यवसाय या लघु उद्योग और अल्प अपरिग्रह का अर्थ आवश्यकतापूरक व्यक्तिगत स्वामित्व हो सकता है। अहिंसक समाज में महाआरम्भ (वृहत् व्यवसाय या वृहत् उद्योग) और महा-परिग्रह (विपुल संग्रह) व्यक्तिगत नहीं होंगे । उनका समाजीकरण दण्डशक्ति के आधार पर नहीं, विसर्जन के आधार पर होगा। तीन भूमिकाएं
खाना स्वाभाविक लगता है। नहीं खाना स्वाभाविक नहीं लगता । खाने का समय न खाने के समय की अपेक्षा बहुत थोड़ा होता है । खाना शरीर की जरूरत है, इसलिए प्राणी खाता है। जरूरत पूरी होने पर वह नहीं खाता, यह उसका हित है, अतः वह खाना छोड़ देता है-खाने पर नियन्त्रण कर लेता है। नियन्त्रण शक्ति कम होती है, तो वह पेटू बन जाता है, जरूरत पूरी हो जाने पर भी खाता ही रहता है। यह विकार पक्ष है। परिमित खाना स्वभाव-पक्ष है। आरोग्य-संवर्धन के लिए स्वभाव-पक्ष का प्रतिरोध करना, नहीं खाना, भूख सहना-~यह हित पक्ष है। समाज की सारी वृत्तियां इन तीनों पक्षों में समा जाती हैं। कानून या विधि-विधान व्यक्ति को विकार-पक्ष से स्वभाव-पक्ष की ओर
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