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________________ मैं कुछ होना चाहता हूं शरीर में अनेक स्थानों पर दोष दर्दरूप में प्रकट होते हैं। एक अनुभवी संन्यासी था। उसके पास एक शिष्य आया। शिष्य ने प्रसन्न होकर कहा-लो, यह तेल देता हूं, यह चमत्कारी तेल है। इसे शरीर में चुपड़ लेना। शरीर सिद्ध हो जाएगा। संन्यासी चला गया। उसने शरीर पर तेल चुपड़ लिया। भक्त लोग आते हैं और शिष्य के शरीर को देखकर दूर से ही भाग जाते हैं। एक दिन बीता दो दिन बीते, तीन दिन बीते। उसने सोचा, यह क्या हो गया? सैकड़ों भक्त आते, बैठते, प्रवचन सुनते, अब दूर से ही भाग जाते हैं। यह क्यों? वह अपने गुरु के पास गया और बोला-गुरुदेव ! यह कैसे परिवर्तन आ गया भक्तजनों में? कोई पास आता ही नहीं। गुरु ने कहा-इन दिनों तुमने कोई प्रयोग किया था? शिष्य बोला-कोई प्रयोग नहीं किया। एक संन्यासी आया था। उसने तेल दिया था। मैंने उसको शरीर पर चुपड़ लिया था। बस, इतना ही किया था। गुरु ने उसका शरीर सूंघा और सूंघकर कहा- अरे गजब कर दिया तुमने! वह सुदर्शन तेल था। उसको लगाने से शरीर पारदर्शी हो जाता है और मन का प्रतिबिम्ब उसमें निखर आता है। तेरा मन अभी सधा नहीं है। उसमें अनेक दोष हैं। वह विकृत है, गन्दा है। इतने दिन तक वह ढका पड़ा था। कोई उसे जान नहीं पाता था। इस तेल के प्रभाव से तेरा अन्त:करण शरीर में प्रतिबिम्बित हो गया। भक्त आता है, देखता है और सोचता है-जिन्हें हम प्रणाम करते हैं, भगवान मानते हैं, विरक्त मानते हैं, वे हृदय से इतने गंदे हैं, मन से इतने विकृत हैं, तो हम इन्हें कैसे प्रणाम करें? कैसे इनकी भक्ति करें। वे देखते ही भाग जाते हैं। शिष्य ! इसे उतारो। तुम्हारे लिए तो तिलों का या सरसों का तेल ही लाभदायक है। यह सुदर्शन तेल की कथा है। प्रज्ञा-प्रदीप भी सुदर्शन तेल का काम कर रहा है। जो लोग यहां साधना करने आते हैं, उनके दोष प्रकट होते हैं। भीतर में जो कुछ एकत्रित कर रखा है, वह बाहर आता है। जब दोष बाहर निकलना चाहते हैं, तब आदमी घबरा जाता है। वह.शिकायतों से भर जाता है। वह कहता है-मैं साधना करने यहां आया था, परन्तु पैरों का दर्द बढ़ गया। कमर में दर्द हो गया। गर्दन दुखने लगी। पेट भी ठीक नहीं है। मैं समझता हूं, प्रगट होना अच्छा है। दोषों का अपनयन लाभदायक है। इससे शरीर सधता है। कार्य-सिद्धि का यही उपाय है। साधनाकाल में जो कुछ किया जाता है वह शरीर को सताने के लिए नहीं, किन्तु शरीर को साधने के लिए किया जाता है। शरीर को साधने में कष्ट अवश्य ही होता है, पर साधना का प्रयोजन कष्ट पहुंचाना नहीं है। आदमी बीमार होता है। वह दवाई लेता है। क्या दवा लेना कष्टकर नहीं होता? बहुत कष्टदायी होता है। इन्जेक्शन लग गया आधे मिनट में, पर उसका दर्द पांच दिन तक भी नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003080
Book TitleMain Kuch Hona Chahta Hu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size7 MB
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