________________
ब्रह्मचर्य
इन्द्रियों का संयम साधना का प्रथम किन्तु बहुत दूरगामी सूत्र रहा है । प्रारम्भ यहीं से होता है किन्तु बहुत दूर तक जाता है। पांच इन्द्रियां हैं - श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शन । शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श-ये पांच विषय हैं। एक अर्थ में इन्द्रियों का जीवन ही वास्तव में जीवन है । आदमी उन्हीं को भोग रहा है और उन्हीं के साथ जीवन को चला रहा है
1
शब्द सुनता है, रूप देखता है, गंध सूंघता है, रस चखता है और स्पर्श करता है। यदि यह न हो तो जीवन कुछ लगता ही नहीं कि जीवन है । प्रश्न है - बह्मचर्य का । ब्रह्मचर्य के बारे में कुछ धारणाएं विचित्र - सी हो गई हैं। स्पर्शनेन्द्रिय संयम को ही ब्रह्मचर्य के अर्थ में स्वीकार कर लिया गया । ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल स्पर्शनेन्द्रिय संयम ही नहीं है किन्तु पंचेन्द्रिय संयम और इससे आगे विकल्प-संयम, स्मृति-संयम, और चिन्तन - संयम भी है । मन और इन्द्रिय- इन सबका संयम ही ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचर्य का एक व्यापक अर्थ रहा है कि ब्रह्म में जिसका चरण होता है वह है - ब्रह्मचर्य । ब्रह्म का अर्थ ज्ञान भी होता है, ब्रह्म का अर्थ परमात्मा भी होता है और ब्रह्म का अर्थ गुरुकुलवास भी होता है । वास्तव में ब्रह्मचारी या ब्रह्मचर्य यह गुरुकुलवास से संबंधित था । जो गुरुकुलवास में रहता है या गुरुकुलवास की चर्या का पालन करता है वह ब्रह्मचारी होता है, उसके ब्रह्मचर्य होता है । गुरुकुलवास में रहने की विशेष चर्या थी - इन्द्रियों का संयम और मन का संयम । पर हमारी धारणा यह है कि ब्रह्मचारी रहें तो स्पर्श को संयम करें। स्पर्श का संयम भी कैसे होगा? सब इंद्रियां परस्पर जुड़ी हुई हैं। एक को टालकर दूसरे को नहीं संभाला जा सकता । यदि शब्द का संयम नहीं है तो स्पर्शनेन्द्रिय का संयम नहीं हो सकता । यदि चक्षु का संयम नहीं हो सकता तो स्पर्शनेन्द्रिय का संयम नहीं हो सकता। ये सारे उद्दीपन हैं । प्रत्येक रस के पैदा होने में उद्दीपन आवश्यक होते हैं । जब उसके स्थायी भाव, संचारी भाव सब सक्रिय होते हैं और फिर उसको बंद करना चाहते हैं, यह संभव नहीं होता। सभी का संबंध है। उनमें रसन और स्पर्शन- - इन दो का तो बहुत गहरा संबंध है । ब्रह्मचर्य के साथ रस का बहुत गहरा संबंध है । शरीर - विज्ञान की दृष्टि में रसन और स्पर्शन - ये परस्पर जुड़े हुए हैं । दोनों का घनिष्ट सम्बन्ध है । एक को वश में करने पर दूसरा अपने आप वश में हो जाता है । अलग से प्रयत्न करना जरूरी नहीं होता । रसना पर नियमन नहीं होता, संयम नहीं होता, स्वाद का संयम नहीं होता और स्पर्शन इन्द्रिय के संयम की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org