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मैं कुछ होना चाहता हूं
बात जागती है तो बड़ी कठिन बात है। अहिंसा का सम्बन्ध शरीर से भी है, पर शरीर की वह मांग नहीं है। सत्य का सम्बन्ध, अचौर्य का सम्बन्ध, अपरिग्रह का सम्बन्ध शरीर है और मस्तिष्क से संबंधित है। किन्तु ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध शरीर से भी है और मन से भी है। उसकी शारीरिक मांग भी है और मानसिक मांग भी है। पुराना सिद्धांत कुछ दूसरा है कि वीर्य का स्खलन होता है तो ब्रह्मचर्य खंडित होता है। वीर्य स्खलित नहीं होता, वह ऊपर चढ़ जाता है तो ब्रह्मचारी होता है। उसे ऊर्ध्वरेता कहा जाता है। मैं तो ऐसा नहीं सोचता और ऐसा संभव नहीं है। कुछेक शब्दों का अर्थ इतना बदल जाता है कि हम एक रूढ़िगत अर्थ मानते चले जाते हैं। मानने की बड़ी आदत है। हर बात को मानते चले जाते हैं । जानने का प्रयत्न बहुत कम करते हैं । मूल तक, गहराई तक जाने की आदत बहुत कम होती है।
शरीरशास्त्रीय दृष्टि से ऐसा कोई स्नायू या नलिका नहीं है जिससे वीर्य ऊपर जा सके। वीर्य की जहां ग्रंथियां हैं वहां से कोई रास्ता नहीं है कि वीर्य ऊपर चढ़ सके। ऊर्ध्वरेता का अर्थ था-प्राणशक्ति को ऊपर ले जाने वाला। प्राण-विद्युत् ऊपर से नीचे आ सकती है। विद्युत् पूरे शरीर में फैल सकती है किन्तु वीर्य के लिए तो कोई रास्ता नहीं है। मूल में वीर्य का अर्थ ही था-शक्ति, ऊर्जा । यह जो शुक्र, वीर्य और रजस् को एक अर्थ में मान लिया गया है यह बड़ी भ्रांति है। इन सबके भिन्न-भिन्न अर्थ हैं।
. कहा जाता है-'मरणं बिन्दुपातेन, जीवनं बिन्दुधारणात्'-बिन्दु का पात होने से मरण हो जाता है और बिन्दु का धारण होना ही जीवन है। बिन्दु का मतलब ही शुक्र कर दिया गया। इससे भी बड़ी समस्या पैदा हो गई। अगर बिन्दुपात से मरण हो तब तो कोई आदमी जी नहीं सकेगा। बड़ी कठिन बात है। बिन्दु का अर्थ ही प्राण-विद्युत् है। हमारे मस्तिष्क में जो प्राण-विद्युत् है उसका क्षरण होता है तो मरण होता है। क्योंकि जीवन का मुख्य आधार मस्तिष्कीय प्राण-विद्युत् और मस्तिष्क है। पूरे शरीर में कोशिकाएं नष्ट होती हैं और फिर नई बनती जाती हैं। मस्तिष्क ही एक ऐसा है कि जहां कोशिकाएं नष्ट होती हैं पर उनका पुनर्निर्माण नहीं होता। सबसे ज्यादा सुरक्षा करने का साधन है हमारा मस्तिष्क और फिर प्राण-विद्युत् । अब इस पर ध्यान देना जरूरी है कि काम की तरंग जब पैदा होती है, उससे मस्तिष्क क्षुब्ध होता है। यह मस्तिष्कीय लोभ ही खतरनाक है। मस्तिष्क जितना शांत रहता है, आदमी उतना ही शक्तिशाली बनता है और मस्तिष्क जितना उद्विग्न, उत्तेजित या क्षुब्ध होता है, आदमी उतना ही कमजोर होता है। ब्रह्मचर्य का इसी आधार पर मूल्यांकन किया गया है। कुछ लोग बड़े परेशान हो जाते हैं कि
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