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मैं कुछ होना चाहता हूं
उसको रोके बिना पंखा नहीं रुक सकता । ताड़ियां स्वतः नहीं चलतीं । वे चलती हैं पीछे की प्रेरणा से। जब तक वह प्रेरणा रहेगी, पंखा चलता ही रहेगा । हम कह देते हैं- पंखा धूर्त है, चंचल है, बन्द नहीं होता । कैसे होगा बन्द ?
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हम अनपढ़ ग्रामीण की भांति मन के साथ वही व्यवहार करते जा रहे हैं। सीधा मन को रोकने का प्रयत्न करते हैं। लाठी से उसे रोकना चाहते हैं । वह नहीं रुकता। मन का पंखा तब बन्द होगा जब उसको गति देने वाली प्रेरणा को रोक देंगे। वह प्रेरणा है -- इच्छा । इच्छा का वेग मन को वेग दे रहा है । इच्छा की विद्युत् के आवेश आते हैं, उसकी तरंगें आती हैं और मन बेचारा घूमने लग जाता है। इच्छा दिखाई नहीं देती। वह विद्युत् का आवेश दिखाई नहीं देता । ताड़ियां दिखाई देती हैं। आदमी दस वर्ष, पचास वर्ष या सौ वर्ष भी लड़ता चला जाए, कोई परिणाम नहीं आएगा । वह लड़ाई तब बन्द होती है जब इच्छा को पकड़ लिया जाता है । इच्छा है तो प्रमाद भी होगा, कषाय भी होगा, योग और चंचलता भी होगी । हम चंचलता को नहीं मिटा सकते, जब तक हम क्रोध की उत्पत्ति की मूल प्रेरणा को नहीं पकड़ लेते। इसलिए इच्छा पर अनुशासन करना बहुत जरूरी है ।
एक छोटा बच्चा बदमाशी कर रहा था । वह किसी के कपड़े, किसी की पुस्तकें और किसी के रूमाल फेंक रहा था । दूसरे ने कहा- बच्चे ! ऐसा क्यों कर रहे हो? उसने तपाक् से उत्तर दिया- मेरी अपनी इच्छा है । तुम कौन होते हो कहने वाले ?
सारी दुनिया में इससे बड़ा कोई उत्तर नहीं हो सकता ।
आदमी सड़क के बीच बैठ गया । पथिक ने पूछा- बीच में क्यों बैठे हो ? उसने कहा- मेरी इच्छा है। कौन है रोकने वाला ?
कहा
पत्नी ने पति से कहा- आप बीमार हैं। डॉक्टर ने नमक न खाने के लिए है । आप क्यों खाते हैं नमक ? पति ने कहा- मुझे क्या खाना है और क्या नहीं खाना है, मेरी अपनी मर्जी है। कौन होता है डॉक्टर और कौन होती हो तुम, मुझे मनाही करने वाली ।
'मेरी इच्छा’–यह सबसे बड़ा उत्तर है । इसके सामने सब अनुत्तर हैं । परन्तु मनुष्य ने यह अनुभव किया कि इच्छा शाश्वत नहीं है, देशातीत और कालात नहीं है । हर स्थान पर, हर बार इच्छा को चलाया नहीं जा सकता । इस अनुभव के परिणाम स्वरूप इच्छा पर अनुशासन करने की बात प्राप्त हुई। उसने सोचा- जो भी इच्छा जागे, जो भी तरंग उठे, जो भी विकल्प उत्पन्न हो, उसे सर्वत्र लागू नहीं किया जा सकता। उस पर नियंत्रण होना चाहिए, अनुशासन होना
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