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जीवन की पोथी
और साथ में उनकी संक्षिप्त जीवनी । पर उस समय हमारी दृष्टि इतनी विकसित नहीं थी । बाद में जब आचारांग को ध्यान से पढ़ा तो लगा कि ये पुस्तकें तो इस शताब्दी में लिखी गई हैं और आचारांग तो दो-ढाई हजार वर्ष पूर्व लिखा गया था । कितनी सुन्दर नियोजना है उसमें ! आठ अध्यायों में महावीर के दर्शन का प्रतिपादन किया और नवें अध्याय में महावीर के जीवन का प्रतिपादन किया। दोनों को टॅली करें और दोनों की संगति मिलाएं। बिलकुल स्पष्ट समझ में आएगा कि जो बात आठ अध्यायों में कही गई वही बात कही गई है जो महावीर ने नौवें अध्याय में जीया है। जीया था और जो जीवन बताया गया, आठ अध्यायों में उसके सिवाय और कुछ भी नहीं । वही बात कि जो जीवन था, उसका दर्शन था आठ अध्यायों में । नौवें अध्याय को पढ़ लो और एक-एक सूत्र को पीछे मिलाते चले जाओ, ऐसी संगति होगी कि महावीर ने यह जीया था, कहा नहीं था केवल, ऐसा जीया था । वह दर्शन बिलकुल व्यर्थ का दर्शन होता है जो जीया नहीं जाता । वही दर्शन सार्थक दर्शन होता है जो जीया जाता है, जो व्यवहार में आता है और व्यवहार में उतरता है । इतना अद्भुत सूत्र है कि सिखाने की बात मत बोलो, पहले जीने की बात को बोलो। स्वयं जीओ और दुनिया सीखे ! तुम मरो, दुनिया सीखे । तुम कहो, विरोध खड़ा हो जाता है । दूसरे का अहंकार खड़ा हो जाता है । किसी को कहो, अहंकार खड़ा हो जाता है कि मुझे समझाने आया है, पहले खुद तो समझ ले । बहुत बार ऐसा होता है । आदमी किसी भी बात को सहना नहीं चाहता, क्योंकि अहंकार की दीवार जो खड़ी है । तुरन्त जवाब देगा कि आया है सीख देने वाला । पहले अपने घर को तो संभाल ले, अपने आपको को तो देख ले, यह बात न जाने कितनी बार सुनी जाती है । बेटा बाप को कह देता है कि मुझे तो बहुत उपदेश देते हैं, पर अपनी भूल की ओर नहीं देखते। एक बार ऐसा प्रसंग आया कि एक लड़का मेरे पास आया और साथ में बाप भी था। बाप ने कहा कि इसको तंबाखू पीने की आदत है, रोज सिगरेट पीता है, छोड़ता नहीं है । तत्काल बेटा बोल उठा कि महाराज ! ये स्वयं तो पीते हैं और मुझसे छुड़वाना चाहते हैं । यह बड़ी समस्या है । वही व्यक्ति दूसरे को सीख दे सकता है, बिना शब्दों की सीख दे सकता है जो स्वयं विनय को प्राप्त है ।
हमारी एक ऐसी परम्परा रही है जिसमें आचार्य को अधिक संयमी रहना होता है । दूसरे को संयम की पालना करनी होती है तो आचार्य को महासंयम की पालना करनी होती है । यह आचार्य भिक्षु से लेकर आज तक बराबर चलती रही है। आचार्य को अंकुश लगाना होता है । एक बार आचार्य भिक्षु से कहा गया कि आप बहुत वृद्ध हो गए हैं । पचहत्तर वर्ष की अवस्था है, अब तो आप बैठे-बैठे प्रतिक्रमण
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