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________________ प्रश्न है सीख देने वालों का किया करें। आचार्य भिक्षु ने कहा कि मैं खड़े-खड़े करता हूं। मेरे पीछे वाले बैठे-बैठे तो करेंगे और मैं बैठा-बैठा करूंगा तो पीछे वाले लेटे-लेटे करेंगे। सीख देने का सबसे सुन्दर तरीका और उपाय यह है कि स्वयं विनय करे, अपने जीवन में आचरण करे और व्यवहार करे, अपने आप दूसरे को सीख मिल जाएगी। जब यह सूत्र पढ़ा तो मन पुलकित हो गया। एक रहस्य उत्तराध्ययन सूत्र में उद्घाटित किया है कि 'अण्णे जीवे विणइता भवई' दूसरों को विनय के मार्ग पर, आचार के मार्ग पर वही व्यक्ति ले जा सकता है जो स्वयं विनीत हो गया, अनाशंसी हो गया, आचार में चला गया, सद्व्यवहार में चला गया। इसी को कहा जाता है कि दीए से दीया जलता है। लौ से लौ जलती है। दीया कभी कहता नहीं, उपदेश देता ही नहीं, पर दीए से दीया जल उठता है। आचार्य दीप-तुल्य होते हैं, और उनसे सैकड़ों दीप जल उठते हैं । इसीलिए जल उठते हैं कि उसे ज्योतिष्मान् रहना होता है। कोई दूसरा व्यक्ति तो अपनी ज्योति को थोड़ा बुझा भी ले तो कोई बहुत बड़ा खतरा नहीं होता किंतु आचार्य यदि ज्योतिष्मान् नहीं रहता है तो बहुत बड़ा खतरा हो जाता है। इसीलिए मैंने ठीक कहा था कि आचार्य को अधिक संयमी रहना होता है, बहुत प्रज्वलित रहना होता है और अधिक जागरूक रहना होता है। उस व्यक्ति को भी जिसने गुरु के चरणों में बैठकर सुश्रूषा की है, पर्युपासना की है, विनय को प्राप्त किया है, उसे जागरूक रहना होता है। वर्तमान के वातावरण में यह बात समझ में आ जाए कि सिखाना शब्दों के साथ नहीं, व्यवहार के साथ सिखाना चाहिए। प्रेक्षाध्यान का अभ्यास करने वाले व्यक्ति वही काम कर रहे हैं कि वैसा जीवन बन जाए। जीवन में वह कहा न जाए, बन जाए । बन जाता है तो वह अपनी अनुभूति हो जाती है और वह कसुम्बा गलता है, दूसरे को भी रंग देता है। ____टोकरसी भाई बैठे हैं। बता रहे थे कि प्रेक्षाध्यान का अभ्यास शुरू किया और इन चार वर्षों में उस भूमिका का अनुभव किया है कि शायद शेष जीवन में नहीं किया था। यह कोई शब्दों से नहीं मिला, किसी ने उपदेश नहीं दिया, उपदेश से नहीं मिला, यह मिला व्यवहार से और आचरण से। तेरापंथ के साधु-साध्वी हजारों मील की यात्रा करते हैं। प्रतिवर्ष वे आचार्य द्वारा निर्दिष्ट स्थान पर एकत्रित होते हैं और पुन: वहां से आचार्य के आदेशानुसार भारत के विभिन्न भागों में चले जाते हैं ! आने-जाने में हजारों मील की दूरी तय करनी होती है। पर यह पूर्ण उत्साह के साथ होता है। चलने वाले सारे युवक ही नहीं होते। उनमें वयःप्राप्त भी होते हैं। आचार्य का आदेश उनके लिए सर्वोपरि होता है । नेपाल से आए और पुनः नेपाल या कलकत्ता जाना होता है तो भी कुछ ननुन च नहीं होता। इसका मूल कारण है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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