SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्न है सीख देने वालों का आदमी मनवाना ज्यादा चाहता है और मानना कम चाहता है। दूसरे को सिखाने की बात तो अच्छी लगती है और स्वयं सीखने की बात अच्छी नहीं लगती। सृष्टि का नियम उल्टा है कि जो स्वयं नहीं मानता, उसकी बात कोई दूसरा नहीं मानता । स्वयं नहीं सीखता, उसकी सीख दूसरा कोई लेता नहीं है। हर आदमी देखता है कि वह क्या कहता है और क्या करता है । कहने वाले को उतना नहीं सुनना चाहता करने वाले को सुनना चाहता है । इसलिए एक सूत्र दिया गया कि गुरु के पास बैठो और सुनो। साधर्मिक के पास बैठो, सुनो और उपासना करो । सुश्रूषा को जगाओ और सुश्रूषु बनो । तुम्हारी उपासना परिपक्व होगी, तुम्हारी सुश्रुषा जागेगी। सुश्रूषा के बिना विनय की उत्पत्ति नहीं होती। आचार सीखा नहीं जा सकता। हर दो व्यक्ति के बीच में एक दीवार होती है। मकान की दीवार बहुत छोटी होती है। हम उसे लांघ जाते हैं । सीढ़ियां बना लेते हैं और ऊपर चढ़ जाते हैं। किन्तु व्यक्ति के बीच में जो दीवार होती है वह दुर्लध्य ही नहीं, अलंध्य हो जाती है । हर व्यक्ति के बीच में दीवार होती है । और वह दीवार है अहं की दीवार । हर व्यक्ति अपना घेरा बनाए हुए है और अहं की दीवार बनाए हुए है। इतनी बड़ी दीवार कि जिसे कभी तोड़ा नहीं जा सकता और लांघा नहीं जा सकता। सुश्रूषा उसी व्यक्ति में आती है जो अहं की दीवार को तोड़ देता है । जब तक अहं की दीवार है, आप पास में बैठे रहें, पर किसी की बात को सुन नहीं सकते । दूर-दूर रहेंगे। पास में नहीं आ सकते । दीवार बीच में बनी रहेगी। साधना का बहुत बड़ा सूत्र है अहं की दीवार को तोड़ देना । जीवन की सफलता का बहुत बड़ा सूत्र है अहं की दीवार को तोड़ देना। दो के मिलन का बहुत बड़ा सूत्र है अहं की दीवार को तोड़ देना। अन्यथा दो व्यक्ति मिल नहीं सकते । पास में बैठे भी इतने दूर होते हैं कि जैसे तीन का और छह का अंक। पास रहते हैं किन्तु दोनों इतने दूर कि कभी मुंह मिलते ही नहीं हैं। दूर रहने वाले पास हो जाते हैं, जिनके अहं की दीवार टूट जाती है । बहुत निकट रहने वाले दूर हो जाते हैं, जिनके निकट अहंकार की दीवार खड़ी रहती है । वही व्यक्ति सीख सकता है जो अहंकार की दीवार को तोड़ देता है। उसी को विनय उपलब्ध होता है, उसी की सद्गति होती है। वह सबसे बड़ी निष्पत्ति है महावीर की वाणी में कि जो स्वयं सुश्रूषा वे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy