SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन की पोथी है कि २१ वीं शताब्दी आदमी के लिए सबसे खतरनाक होगी और जिन लोगों ने सुख-सुविधा का दृष्टिकोण बना लिया, उन्हें लगता है कि उसमें स्वर्ग उतर आएगा । ८५ एक बार कोई सिद्ध पुरुष आया और उसने कहा कि मैं सब कुछ दे सकता हूं । यह बात धरती ने सुनी और आकर बोली - "महाराज ! आपको कुछ देना हो तो आप स्वर्ग में चले जाइये । क्योंकि उसके पास सुख ही सुख है कोई काम तो है नहीं । कुछ करना तो है ही नहीं । उन्हें मुफ्त में दिया हुआ चाहिए । धरती के बेटे को वरदान नहीं देना, अन्यथा वह अकर्मण्य और आलसी बन जाएगा । यह बहुत बड़ा प्रश्न है और सबसे पूछा जाने वाला प्रश्न है और आज के उन वैज्ञानिकों से यह पूछा जाने वाला प्रश्न है कि तुम ज्यादा से ज्यादा सुविधा के साधन जुटा कर आदमी के साथ न्याय कर रहे हो या आदमी को सुलाना चाहते हो, मूर्च्छा में डालना चाहते हो ? हमने देखा है कि एक आदमी सात वर्ष तक मूर्च्छा में रहा । खाट से नहीं उतरा, न स्वयं खाना और न स्वयं उत्सर्ग करना और कोई काम न करना, और कुछ न करना, आज भी जीवित है । आप इसे क्या मानेंगे ? सुख में रहा ? घर वाले प्रयत्न करते रहे कि जागे और उठे । प्रयत्न क्यों चला कि मूर्च्छा में जीना आदमी का जीना नहीं होता, एक पत्थर का जीना होता है । कोई भी पत्थर बनना नहीं चाहता । राम को बहुत बड़ा श्रेय दिया जाता है कि अहिल्या का स्पर्श किया और वह पत्थर से स्त्री बन गई । पत्थर था, कितना सुख था और स्त्री बनने के बाद कहां वह सुख और आराम था, पर हर कोई पाषाण का जीवन जीना नहीं चाहता | हमारी चेतना जागृत रहे और चेतना का विकास हो । अव्याबाध सुख की खोज यह यन्त्रमनाव और कम्प्यूटर से होने वाली नहीं है । यह खोज हो सकती है अपनी चेतना के विकास से । उस चेतना का विकास जिसके जागने पर समता का निर्माण हो जाए और हर स्थिति में आदमी सम रह सके, विषमता न आए। इसलिए हमारे समाने प्रश्न होता है सुखवाद का और सुविधावाद का । अब निर्णय करना युग के हाथ में है और अपने हाथ में है कि क्या आप सुख-सुविधा के कारण अपने आपको मूर्च्छा की स्थिति में ले जाना चाहते हैं या अपनी चेतना को जागृत कर अव्याबाध सुख की ओर बढ़ना चाहते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy