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________________ ८५ प्रश्न है सुखवाद या सुविधावाद का कभी कोई बाधा या विघ्न न आए। मोक्ष का सुख अव्याबाध होता है। वीतराग का सुख अव्याबाध होता है। उस व्यक्ति का सुख अव्याबाध होता है जिसने समता की साधना कर ली । उसके सुख में कोई विघ्न नहीं डाल सकता । जिसने समता को साध लिया, उसके सुख में कोई विघ्न डाल ही नहीं सकता । इन तीन व्यक्तियों का सुख अव्याबाध होता है-समता की साधना करने वाले साधक का, वीतराग का और मुक्त आत्मा का । सन्यासी के पास युवक आकर बोला--- "मुझे अव्याबाध सुख चाहिए, ऐसा सुख चाहिए, जिसमें कहीं कोई बाधा और विघ्न न आए । ऐसा प्रकाश चाहिए जहां कही कोई रात न आए।' सन्यासी बोला--'हमारी दुनिया में ऐसा है नहीं। दिन के बाद रात आती है और रात के बाद दिन आता है। सुख के बाद दुःख आता है और दुःख के बाद सुख आता है। दुनिया में ऐसा कोई गुर है नहीं, मैं कैसे बताऊं?" सन्यासी ने फिर कहा---'लो, अब मैं तुम्हें गुर बताता हूं। जिस व्यक्ति ने लाभ-अलाभ, सुख-दु:ख, जीवन-मरण, निंदा-प्रशंसा इन सबमें सम रहना सीख लिया और अपनी चेतना को समतामय बना लिया, वही व्यक्ति अव्याबाध सुख पाने का अधिकारी है और कोई नहीं हो सकता। ___सचमुच हमारी दुनिया में अव्याबाध सुख है ही नहीं। एक व्यक्ति आज तक तो हमें नहीं मिला जो यह कह सके कि हमारा जीवन तो बिलकुल दुःख-मुक्त और समस्या मुक्त रहा है। महावीर घर से निकले और बारह वर्ष तक चर्या करते रहे। बुद्ध अपने घर से निकले और वर्षों तक साधना करते रहे। वे उस सुख की खोज में निकले कि जो केवल सुख हो और जिससे दुःख जुड़ा हुआ न हो । सुख के पीछे दुःख न चलता हो, उस सुख की खोज में निकले थे। साधारणतः आदमी के पास सुख आता है किंतु साथ-साथ दुःख की भी पदचाप सुनाई देती है, वह भी कह रहा है कि जल्दी ही आ रहा हूं। जाओ तुम, अपना काम करो, मैं भी पीछे-पीछे आ रहा हूं। ऐसा लगा रहता है कि पीछे क्या कभी-कभी आगे हो जाता है। कभी-कभी आगे की बात हो जाती है। सुख की खोज में प्रयाण किया कि जिससे पीछे-पीछे दुःख न आए। अव्याबाध सुख, निरन्तर सुख । हर आदमी चाहता है। पर वह इसलिए सफल नहीं हुआ कि उसने कन्टीन्यूटी नहीं रखी, निरन्तरता बनाए नहीं रखी । जहां निरन्तरता नहीं होती, वहां आदमी फेल हो जाता है। सुख की निरन्तरता नहीं है, क्यों नहीं है। हमने इतना पुरुषार्थ नहीं किया और इतना श्रम नहीं किया कि जिससे हमारा सुख निरन्तर रह सके । श्रम तो थोड़ा करते हैं और सुख ज्यादा चाहते हैं । अव्याबाध सुख के लिए निरन्तर श्रम करना होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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