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________________ जीवन की पोथी __ जो व्यक्ति कठोर श्रम करता है, वह कुछ दे जाता है । पीछे छोड़ जाता है । भावी पीढ़ी के लिए कुछ छोड़ जाता है । उसी की विरासत चलती है जिसने कठोर श्रम किया है। भगवान् महावीर कहीं आश्रम बांध कर बैठे नहीं । बड़ी विचित्र बात है। पूरे साधना काल में निरन्तर चलते रहे । कभी कहीं गए, कभी आदिवासियों के बीच गए और कभी जंगल में गए, श्मशानों में गए और कभी कहीं गए। केवल चर्या, चर्या और चर्या । चलना, चलना और चलना । क्या सूझी उन्हें ? श्रम करते रहे। वर्द्धमान सिद्धार्थ के महलों में जन्मे । वे राजकुमार थे। सुख एवं मौज करते थे । आनन्द करते थे। फिर क्या सूझी कि सब आनन्द को छोड़कर गांव-गांव में घूमते रहे ? बुद्ध अपनी राजधानी में मजे से बैठे थे। उन्हें क्या सूझा कि छोड़कर संन्यासी बन गए और महल से नीचे उत्तर आए। ऐसा क्यों किया ? क्वों इतनी तपस्या की ? क्यों इतनी भूख सही ? क्यों इतने मच्छरों का कष्ट सहा, पशुओं का कष्ट सहा और आदमियों का कष्ट सहा ? बात समझ में नहीं आती। जब सुखवादी विचारधारा के सम्बन्ध में सोचते हैं तो ऐसा लगता है कि उन लोगों ने समझदारी का काम नहीं किया। समझदार होते तो सुखवाद को छोड़कर क्यों कष्ट झेलते ? एक दृष्टिकोण यह है कि सामने थाली परोसी हुई है, उसे तो छोड़ना और भावी सुख की कल्पना करना । सामने जो प्राप्त है उसे तो भोगना नहीं, आगे के लिए विचार करना। यह स्वर निकलता है सुखवादी विचारधारा से । किन्तु महावीर सुखवादी नहीं थे । बुद्ध सुखवादी नहीं थे। उनके सामने सुख-दुःख कुछ था ही नहीं। वे चाहते थे कि इस प्रकार की चित्तवृत्ति का निर्माण करना कि उन्हें दुःख छू ही न सके, सुख छ ही न सके । इस प्रकार के चित्त और चेतना का निर्माण कर सके । इस प्रकार की जब चेतना बन जाती है तब बेचारा सुख भी नीचे रह जाता है और दु:ख भी नीचे रह जाता है। कोई वहां आ ही नहीं सकता, प्रवेश ही नहीं कर सकता और स्पर्श ही नहीं कर सकता। जब तक हमारी चेतना को सुख और दुःख छूता रहता है, हम शांति और सुख का जीवन जी नहीं सकते । एक बार सुख होता है और सुख के बाद फिर दुःख आता है । इतने विघ्न ! इतने लोग बैठे हैं, एक भी आदमी यह बता दे कि मैंने निर्विघ्न सुख भोगा है। क्या कोई बता सकता है, साहस कर सकता है ? कोई भी कह सकता है कि मैंने निर्विघ्न सुख भोगा है ? ऐसा सुख भोगा है जिसमें कोई बाधा नहीं आई और कोई दुःख नहीं आया है ? क्या कोई कह सकता है ? एक संन्यासी के पास एक व्यक्ति आया और आकर बोला कि मुझे ऐसा गुर बताओ कि मुझे सुख ही सुख मिले, दुःख आए ही नहीं। अव्याबाध सुख । जैन दर्शन का एक प्रसिद्ध शब्द है अव्याबाध सुख । ऐसा सुख जिसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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