SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन की पोथी ही नहीं और फल को पाना चाहते हैं। पेड़ तो उगाया ही नहीं और फल को पाना चाहते हैं । आसन इसीलिए करते हैं कि शरीर स्वस्थ रहे, मन स्वस्थ रहे । यदि शरीर को स्वस्थ रखना है और मन को स्वस्थ रखना है तो पहले श्रम करना होगा । श्रम के बिना शरीर में रक्त का संचार भी व्यवस्थित नहीं होगा। रक्त का संचार नहीं होगा तो शरीर पीड़ा देगा। शरीर सुख भी देता है और शरीर पीड़ा भी देता है । जोइंट में दर्द, सिर में दर्द होता रहता है। दर्द वहां होता है जहां संचार की व्यवस्था ठीक नहीं रहती। दर्द वहीं होता है फिर चाहे वह धन का संचार हो, चाहे रक्त का संचार हो, चाहे जल का संचार हो, किसी का संचार हो, संचार की व्यवस्था गड़बड़ा जाती है वहां समस्याएं पैदा हो जाती है। अवरोध आता है । चाहे सामाजिक जीवन हो, चाहे व्यक्ति का जीवन हो, चाहे राष्ट्रीय जीवन हो, जहां संचार में अवरोध आया, वहीं दर्द पैदा हो जाएगा। आज समाज में भी दर्द है और पीड़ा हैं, व्यक्ति में भी दर्द और पीड़ा है, शरीर में भी दर्द और पीड़ा है। छोटे-छोटे बच्चे के शरीर में भी दर्द है और पीड़ा है । शिविर में भी एक बच्चा है, युवक नहीं हुआ है, युवक की दहलीज पर है उसे उठते-बैठते देखकर मन में एक अनुकम्पा का भाव जागता है । उसको पीड़ा है, क्योंकि रक्त का ठीक से संचार नहीं हो रहा है। उसके संचार की प्रणाली स्वस्थ नहीं है। इसलिए संधियां पीड़ा करने लग जाती हैं, अवरोध आने लग जाते हैं । पीड़ा है पर पीड़ा क्यों है ? यह दर्द क्यों है, कि श्रम नहीं है। हम रक्त को ठीक पहुंचाना नहीं चाहते । श्रम के अभाव में यह सब हो रहा है। कुछ ऐसी मान्यताएं बन गईं और कुछ गलत धारणाएं बन गईं कि आदमी सीधा सुख पाना चाहता है, श्रम करना नहीं चाहता। शरीर को कष्ट देना नहीं चाहता । कष्ट देना बहुत जरूरी है। कष्ट दिए बिना शरीर नहीं सधता और कार्यसिद्धि नहीं होती। कष्ट दिए बिना वासिद्धि नहीं होती । कष्ट दिए बिना मानसिक सिद्धि नहीं होती, मन सधता नहीं। जो सधा हुआ नहीं होता -- मन, वचन और शरीर, वह स्वयं कष्ट देने लग जाता है । सधा हुआ मन, वचन और शरीर सुख देता है और नहीं सधा हुआ स्वयं पीड़ा देने लग जाता है, पर कुछ गलत मान्यताओं के कारण आदमी श्रम से जी चुराता है। श्रम करने के कार्य को छोटा काम मानता है । बड़प्पन नहीं मानता। एक भारतीय व्यक्ति अमेरिका में गया, पढ़ा-लिखा आदमी था, विद्वान् था, त्यागी था, सब कुछ था, पर गलत मान्यताएं थीं । एक दिन अपेक्षा हुई। वह मोची की दूकान पर गया । जाकर बोला लो, मेरे जूते गांठ दो। युवक था । दूकानदार बोला-'मैं अभी बड़ा व्यस्त हूं। मेरे पास बहुत काम है । तुम यह सूई-धागा लो और स्वयं गांठ लो।' यह कहते ही वह चौंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy