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________________ प्रश्न है सुखवाद या सुविधावाद का प्रातःकाल सूर्योदय के बाद हम नीडम् के भवन के सामने से गुजर रहे थे । हमने देखा कि सब व्यक्ति आसन की मुद्रा में खड़े थे। मन में प्रश्न उभरा कि ये शिविर में क्यों आए हैं ? मजे से अपने घर में बैठे थे । कोई कष्ट नहीं था। सुबह होते ही सीधे नाश्ते पर जाते, दूध पर जाते । यह घंटा भर ऊठ-बैठ क्यों ? ये आसन क्यों ? शरीर को इतना कष्ट क्यों ? गैरेज में बैठे हैं। घर में अच्छी सुविधाएं और अच्छा कमरा, यहां तो एक-एक कमरे में कइयों को एक साथ ठहराया गया है । उस सुविधा को छोड़कर यहां क्यों आए हैं ? सुविधा को छोड़ा है ? प्रश्न उभरता है। आदमी अधिक से अधिक सुख चाहता है, सुविधा चाहता है । युग का दृष्टिकोण ही ऐसा बन गया और आचारशास्त्रीय दर्शन की धारा बन गई सुखवाद । सुख में रहना, सुख देना और सुख पाना । युग का दृष्टिकोण बन गया सुविधावाद । अधिकतम सुविधाएं उपलब्ध करना और कराना । कोई एम० एल० ए० के चुनाव में विजयी होगा और कोई एम० पी० के चुनाव में विजयी होगा तो सबसे पहला वक्तव्य देगा कि अधिक से अधिक सुविधाएं अपने चुनाव क्षेत्र में उपलब्ध कराऊंगा । चाहे सात जन्म में भी न कराए, पर कहेगा यही । चुनाव का घोषणा-पत्र भी होगा तो उसमें भी अधिक से अधिक सुविधा देने का आश्वासन होगा । इसका अर्थ हुआ कि आदमी सुविधा चाहता है और सुविधा के नाम पर उसे जब चाहे खरीदा जा सकता है। सुविधा दूंगा, फिर चाहे उससे कुछ भी करवा लिया जाए। ये सुखवाद की धारणाएं और सुविधावाद के दृष्टिकोण शायद भला नहीं कर रहे हैं, ज्यादा भटका रहे हैं । सुख मिलना एक बात है और सुविधावादी होना बिलकुल दूसरी बात 1 सहज सुख मिलता है तो मिलता है । कोई हमारा उससे वैर - विरोध तो नहीं कि सुख आए ही नहीं और यह संभव भी नहीं । आदमी की प्रकृति है कि वह पुरुषार्थं सुख के लिए करता है। किंतु सुखवाद एक अलग चीज है। सुविधाबाद बिलकुल दूसरी चीज है। हम प्रश्न के मूल पर जाएं। किसे सुख मिलता है । सोचें ! उस व्यक्ति को सुख मिलता है जो श्रम करता है, जो तपस्या | सुख से सुख नहीं मिलता। आराम से सुख कभी नहीं मिलता । सुख उसे ही प्राप्त होता है जो श्रम करता है । सुख श्रम की निष्पत्ति है । किंतु सुख स्वयं में सुख नहीं है । स्वयं स्वयं का हेतु नहीं है । एक परिणाम है । हम कारण को छोड़ देते हैं और कोरा पाना चाहते हैं। बीज तो बोते T करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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