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________________ ७६ जीवन की पोथी बराबर बन्धा हुआ है । आप आज नहीं करें तो कल मन में लालसा जाग जाएगी, कल नहीं करें तो परसों जाग जाएगी। जब तक कारण विद्यमान है, यह संभव नहीं होता । महत्त्वपूर्ण शब्द का चुनाव है -- निर्वेद, यानी वेदन नहीं, उसका अनुभव नहीं । ऐसा मानो, कभी उसका अनुभव किया ही नहीं था। संवेदन नहीं है उसका । अपने चीनी का स्वाद चखा है । अभी मुंह में चीनी तो नहीं है, पर स्वाद याद है कि स्वाद कैसा होता है ? अपने केला खाया है, आम खाया है । आम का मौसम चला गया । आम का स्वाद याद है, क्योंकि संवेदन तो जुड़ा हुआ है। संवेदन छूटा या नहीं छूटा–यह मुख्य बात है । पदार्थ छूटा या नहीं छूटा - यह गौण बात है। क्या कोई आदमी रोज सब पदार्थ को खाता है ? कोई नहीं खाता और खाये तो दूसरे दिन खा ही नहीं सकता। आदमी नहीं खाता, किन्तु सारे के सारे संवेदन जुड़े हुए हैं, सब संवेदन को ताजा बनाए हुए हैं। हमारा मस्तिष्क ऐसा है कि संवेदनों को पकड़े हुए है । आखिर बदलना क्या है ? आदत को नहीं बदलना है। उसे बदलना है जो आदत को चला रहा है। सारी आदतों का संचालन मस्तिष्क से हो रहा है । तो मस्तिष्क को बदलना है। मानसिक प्रशिक्षण ! मन को प्रशिक्षित करना है । यह आज की भाषा है और पुरानी भाषा है संस्करों को बदलना । निर्वेद करना है। निर्वेद यानी वेदना के सूत्र को तोड़ देना । पदार्थ और हमारी लालसा दोनों का अर्थ क्या है ? हमें पदार्थ दिखाई दे रहा है । यह आम है और यह केला । और उसके प्रति वह लालसा है, आसक्ति है, वह दिखाई दे रही है । जैसे ही पदार्थ सामने आया और एक प्रकार की भावना पैदा हो गई। यह दोनों तो दिखाई दे रहे हैं परन्तु इसके बीच में जो सूक्ष्म धागा है वह दिखाई नहीं दे रहा है, और वह है वेदना का धागा। निर्वेद आदत को बदलने का सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र है। वेदन नहीं रही, अनुभूति नहीं रही, ऐसा लगा कि जैसे किया ही नहीं। अनुभूव को ही काट दिया, तब आदमी कहीं बदल सकता है । इन्द्रिय विषयों के प्रति अनासक्ति आ सकती है। यह तभी संभव है जब राग का स्थान विराग ले ले, निर्वेद ले ले। निर्वेद जब आ गया, सूत्र कट गया। चाहे जैसी चीज आ जाए, मन नहीं ललचाएगा। कोई फर्क नहीं पड़ेगा। हम लोग जाते हैं... रास्ते में कभी-कभी एक अच्छी धनराशि पड़ी मिल जाती है । पर कभी मन में कल्पना ही नहीं उठती कि उसे उठाया जाए। ऐसा प्रंसग आता है कि ऐसे मकान में सोते हैं, ऐसे कमरे में सोते हैं जहां पचास लाख, करोड़ का जवाहरात और संपदा पड़ी रहती है। पर कभी मन में कोई तरंग नहीं उठती। इसका कारण है कि जो कारक तत्त्व था वह बदल गया। कारक तत्त्व बदला, आदर्श बदल गया यानी उस अनुभूति पर मस्तिष्क की चेतना पहुंच गयी कि यह हमारे लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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