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________________ प्रश्न है अनासक्ति का ७३ जो सबको पकड़ता चला जा रहा है। जो भी आया उसे पकड़ लिया। पकड़ता जा रहा है । इन्द्रियां माध्यम बनती हैं। इद्रियों का कोई दोष नहीं है । एक माध्यम है कि सामने रूप आया, रंग आया, आंख बेचारी का क्या दोष है ? आंख का काम तो था देखना और जानना। उस बेचारी ने अपना काम किया। आंख पकड़ने वाली नहीं है । जीभ पकड़ने वाली नहीं है । जीभ पर कोई चीज रखी, स्वाद आया, उसका कोई दोष नहीं है । जैसा था वैसा बता दिया। इतना ही तो काम था। न तो आंख पकड़ने वाली है और न जीभ पकड़ने वाली है। पकड़ने वाला कोई दूसरा ही है। वह है राग का संस्कार । एक हमारे भीतर ऐसा संस्कार है जो पकड़ लेता है । उस संस्कार का नाम है राग या आसक्ति । राग पकड़ता है। जब पकड़ने वाले को खोज लिया गया तो यही खोजा गया कि वह क्या उपाय है जिसके द्वारा पदार्थ को पदार्थ के रूप में ग्रहण करें, जिससे पकड़ न हो, चिपकाव न हो। क्या यह सम्भव है कि हमारे लिए पदार्थ पदार्थ हो, और कुछ न हो। एक बहुत बड़ा सत्य खोजा गया। यह हो सकता है। यह सम्भव है कि पदार्थ पदार्थ रहे और कुछ पहले न जुड़े। राग सक्रिय है और जीभ पर कोई चीज आई, ओह ! कितनी अच्छी है । बढ़िया है । चीज आई, कितनी खराब ! कितनी गंदी ! ये दो बातें क्यों जुड़ी ? अच्छा और बुरा क्यों जुड़ा ? पदार्थ न तो अपने आपमें अच्छा होता है और न अपने आपमें बुरा होता है । फिर यह अच्छा और बुरा, प्रिय और अप्रिय-ये विशेषण क्यों जुड़े ? ये शब्द जुड़े इसलिए कि जोड़ने वाला कोई भीतर बैठा है। पदार्थ अपने आपमें कोई अच्छा-बुरा नहीं है। अच्छा-बुरा मानने वाला और अच्छा-बुरा विशेषण जोड़ने वाला कोई भीतर है। अगर हम आपको पकड़ लें तब तो हम एक नए जगत् में प्रवेश पा सकते हैं। और जब तक उसको नहीं पकड़ सकेंगे, तब तक अच्छाई और बुराई के जगत् से हमारा छुटकारा नहीं हो सकता। इस जगत् का नाम है इन्द्रिय जगत् । और जहां पदार्थ पदार्थ रहता है बाकी कुछ भी नहीं बचता, उस जगत् का नाम है अतीन्द्रिय जगत् । इन्द्रिय से परे का जगत् ।। इस इन्द्रिय जगत् में रहने वाला व्यक्ति इस समस्या का भी समाधान नहीं कर सकता । हमेशा उलझा रहेगा प्रियता में और अप्रियता में, अच्छे और बुरे में । चक्कर में उलझा ही रहेगा वह । कभी भी मुक्ति पा ही नहीं सकेगा । और इसका अर्थ है कि उसका सुख डावांडोल रहता है। आज रसोई अच्छी बनी, बड़ा सुख मिला। बड़ी प्रशंसा कर दी। और कल रसोई बनाने वाली नमक डालना भूल गई, क्रोध भभक उठा। नमक ज्यादा डाल दिया तो उत्तेजना आ गई । सुख का अनुभव हो नहीं सकता। इसलिए एक उपाय खोजा गया, और उस उपाय का नाम है विराग । राग और विराग । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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