SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवन की पोथी तो आज हमारे सामने प्रश्न है मुमुक्षा का, मुक्त होने की इच्छा पैदा करने का । प्रश्न है संवेग का । जब संवेग पैदा होता है तब श्रद्धा पैदा होती है, तब यह बात समझ में आती है कि मैं दुःख से मुक्त होना चाहता हूं। और उससे मुक्त होने का उपाय है धर्म। धर्म के प्रति एक श्रद्धा पैदा हो । जब तक मुमुक्षा नहीं है, तब तक धर्म का कोई अर्थ नहीं है। यह धर्म वैसा ही है जैसा कि पढ़ा हुआ समाचार पत्र है। समाचार पत्र पढ़ लिया और सारी खबरें जान ली। पढ़ने के बाद समाचार पत्र का क्या मूल्य होता है ? कुछ नहीं। धर्म का क्या मूल्य है जब तक मुमुक्षा नहीं जागती । हम इस प्रश्न पर चिंतन करें कि हिन्दुस्तान में कितने लोग हैं, जिनमें मुमुक्षा जागी हुई है। धार्मिकों के आंकड़े हमारे पास हैं । जैन धर्म को मानने वाले कितने लोग हैं ? वैष्णव धर्म को मानने वाले कितने हैं ? इस्लाम को मानने वाले कितने हैं ? क्रिश्चियन कितने हैं ? सिक्ख धर्म को मानने वाले कितने हैं ? आंकड़े हमारे पास हैं पर इसके आंकड़े हमारे पास नहीं हैं कि मुमुक्षा कितने लोगों में जागी है । जब मुमुक्षा ही नहीं जागी तो कोरा धर्म रक्षा नहीं कर सकता। क्या आज धर्म की यही स्थिति नहीं है ? जो लोग यह प्रश्न पूछते हैं कि इतने धर्म और फिर हिन्दुस्तान बदलता क्यों नहीं है ? तो क्या उन्हें भी इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना होगा कि वास्तव में धार्मिक लोग कितने हैं और केवल लाइसेन्स रखने वाले कितने हैं ? इस बात पर पहुंच जाएंगे तो प्रश्न जटिल नहीं होगा। उत्तर बहुत स्पष्ट है कि अनैतिकता और अप्रामाणिकता उन्हीं के सहारे चलती है जो केवल धर्म का लाइसेन्स लिए बैठे हैं। उनमें मुमुक्षा का भाव जागा नहीं है। वे धार्मिक नहीं बन पाए हैं । बहुत स्पष्ट उत्तर है। सबसे पहली बात है मुमुक्षा और वह पैदा करती है धर्म की श्रद्धा। यह एक चक्र है-संवेग से धर्म की श्रद्धा और धर्म की श्रद्धा से संवेग । क्रम बराबर चलता रहे। पानी के एक दिन के वेग से खेती बराबर नहीं होती। कितनी बार पानी को प्रभावित करना होता है। संवेग ने श्रद्धा को जन्म दिया, श्रद्धा ने फिर संवेग को बढ़ाया। संवेग ने फिर श्रद्धा को जन्म दिया, यह चक्र चलता रहेगा । संवेग से श्रद्धा और श्रद्धा से संवेग, मुमुक्षा से धर्म की आस्था और आस्था से फिर मुमुक्षा । यह बराबर चलता रहेगा, तब दर्शन शुद्ध बनेगा । दर्शन शुद्ध तो दृष्टिकोण भी शुद्ध । उस स्थिति में परिवर्तन की बात सोची जा सकती है। अन्यथा परिवर्तन की बात हमें नहीं सोचनी चाहिए। अगर हमारा विश्वास परम्परागत धर्म में है तो करते चले जाएं किंतु यह आशा न रखें कि कोई बदलाव होगा । यदि इतने में ही संतोष है तो करते चले जाएं । पर साथ में बदलने की बात को क्यों सोचें ? यदि बदलने की बात को सोचेंगे तो सारी प्रक्रिया बदलनी होगी। बदलने की बात को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy