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श्न है दृष्टिकोण का
अपवाद हो सकता है। किन्तु जन्मना, मरना, रोग होना और बूढ़ा होना, इसमें अपवाद नहीं हो सकता। हर व्यक्ति ने कुछ न कुछ बीमारी को भोगा है । बुढ़ापा आता रहा है। प्राणी जन्म लेता है और मरता है, यह दुःख है। तो फिर जब दुःख की अनुभूति होती है, आवेग संवेग बन जाता है । संवेग प्रबल हो जाता है । सांख्यदर्शन ने त्रिविध ताप की व्याख्या की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक । ये तीन ताप हैं। इन तापों से जब व्यक्ति तप्त होता है तब उसमें मुमुक्षा पैदा होती है । मूर्छा में छिद्र होने पर यह मुमुक्षा का भाव पैदा होता है, संवेग पैदा होता है कि मुझे दुःख से मुक्त होना है, एक इच्छा पैदा होती है । संवेग, मुमुक्षा-यह एक नई इच्छा पैदा हो गई । आज तक मूर्छा के सघन वातावरण में यह इच्छा कभी पैदा नहीं हुई कि मुझे मुक्त होना है। जैसे ही मूर्छा में थोड़ा-सा छिद्र बना, वैसे ही एक नई इच्छा पैदा हो गई कि मुझे मुक्त होना है। आदमी बदलता बाद में है, पहले दृष्टिकोण बदलता है। आचरण बाद में बदलता है, पहले दृष्टिकोण बदलता है । दृष्टिकोण बाद में बदलता है. पहले मूर्छा में छिद्र होता है, मूर्छा टूटती है । मूर्छा टूटती है तब दृष्टिकोण बदलता है।
आदमी दुःख का अनुभव नहीं करता। वह दुःख को सहज ही भोगता चला जा रहा है। उसे अनुभव ही नहीं हो रहा है कि दुःख है । मल का कीड़ा मल में ही प्रसन्न रहता है। उसे दु:ख का अनुभव ही नहीं होता । सूअर से कहा गया कि मैं तुम्हें दूसरी योनि में बदल दंगा। उसने कहा, मत बोलो, मुझे यहीं रहने दो। यहां मेरी पत्नी है, मेरा बच्चा है और मेरा परिवार है। इसे छोड़ भला मैं दूसरी योनि में कैसे जा सकता हैं। सूअर भी सूअर योनि को छोड़ना नहीं चाहता और कुत्ता भी कुत्ते की योनि को छोड़ना नहीं चाहता, क्योंकि उसमें मूर्छा है।
मूर्छा कितनी प्रबल होती है आदमी में कि वह हर स्थिति को सह लेता है, पर मूर्छा के चक्र को तोड़ नहीं सकता। बहुत जटिल स्थिति है। जब तक मूर्छा नहीं टूटती, तब तक मुमुक्षा का भाव पैदा नहीं होता। आज हमारी समस्या है मुमुक्षा पैदा करना । मुक्त होने की इच्छा मन में जागे । आदमी शराब पीता है। उसे छोड़ नहीं पाता है। तब तक नहीं छोड़ पाता जब तक मुमुक्षा पैदा नहीं हो जाती। बुराई से मुक्त होने की ईच्छा पैदा न हो जाए, तब तक हजार बार आदमी को कहें, वह नहीं छोड़ पाएगा और जिस दिन यह भावना पैदा हो जाएगी कि मुझे इस बुरी आदत से मुक्त होना है, उसे छोड़ने में समय नहीं लगेगा । आचरण के सुधार का प्रश्न जटिल नहीं है, जटिल है दृष्टिकोण के सुधार का । दृष्टिकोण बदला और आचरण सुधरा हमें दृष्टिकोण को बदलना है। हृदय को बदलना है। वह बदला तो सारी सृष्टि बदल जाएगी । ठीक ही कहा है - जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि ।
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