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________________ जीवन की पोथी हम जागतिक नियमों के साथ चलते हैं । किसी भी बात की व्याख्या एक नियम के साथ नहीं की जा सकती । प्रत्येक घटना की व्याख्या के लिए अनेक सार्वभौम नियमों का सहारा लेना होता है । एक सार्वभौम नियम हैकाल । काल-नियम के साथ भी कुछ घटनाएं घटित होती हैं। कोई बाहर का कारण नहीं होता । कोई घटना नहीं होती । कोई हेतु नहीं होता । कालमर्यादा के साथ कुछ घटनाएं हो जाती हैं। मूर्छा सघन है, किन्तु कालनियम के साथ मूर्छा में कहीं-कहीं छेद हो जाता है और एक नई घटना घटित हो जाती है। आवेग संवेग में बदल जाता है। वेग तो जरूर रहेगा। वेग को छोड़ने पर कोई घटना हो नहीं सकती। वेग को छोड़कर हम कुछ कर नहीं सकते । अनावेग की स्थिति तब आएगी जब इस शरीर को भी छोड़ देंगे । शरीर है तो शरीर का वेग जरूर रहेगा। शरीर है तो प्रवृत्ति होगी, क्रिया होगी, वेग होगा । वेग में मंदता नहीं आती। वेग में यदि मंदता आती है तो वह व्यक्ति निठल्ला आदमी बन जाता है, चुस्त नहीं रहता । सुस्त कोई व्यक्ति रहना नहीं चाहता। हर आदमी चुस्त रहना चाहता है। चुस्ती के लिए वेग का होना जरूरी होता है । ___ आचार्यश्री चलते हैं तो बहुत वेग के साथ चलते हैं। कोई ढीलाढाला चलता है तो उन्हें अच्छा नहीं लगता। कह देते हैं-चलना ही नहीं जानते । ‘जहां गति में वेग नहीं है, तीव्रता नहीं है, मंजिल तक कैसे पहुंचा जा सकेगा ? मंजिल तक पहुंचने के लिए गति में वेग होना जरूरी है। हम वेग को नहीं छोड़ सकते किंतु हमारी वेग की यात्रा के पीछे दो बातें होती हैं। या तो 'आ' जुड़ेगा या 'सं' जुड़ेगा। 'आ' जुड़ेगा तो फिर भटकाव ही भटकाव । आवेग ही आवेग । और 'सं' जुड़ेगा तो उसका परिष्कार हो जाएगा, भटकाव बन्द हो जाएगा, मूर्छा घनीभूत नहीं रहेगी। सवेग उत्पन्न हुआ-इसका अर्थ है, अब तक मूर्छा थी, अब इसका स्थान मुमुक्षा ने ले लिया । संवेग का अर्थ है मुमुक्षा, मुक्त होने की इच्छा । एक वेग पैदा हुआ, इच्छा पैदा हुई कि मुझे मुक्त होना है। यह क्यों हुई कि मूर्छा में छिद्र हो गया। नहीं तो आदमी कितने समय से, असीम काल से शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक पापों को सहता चला आ रहा है । कितने दुःख हैं । जैन और बौद्ध दर्शन ने दुःखवाद की व्याख्या की। दोनों दर्शनों ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कि संसार दुःखमय है । पूछा-दुःख क्या है ? उन्होंने कहा - जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है और मरण दुःख है। ये दुःख तो ऐसे हैं जिनमें कोई अपवाद नहीं है । और तो अपवाद हो सकता है । किसी को बहुत अच्छी संपदा मिली, अभाव नहीं रहा, ऐसा हो सकता है । बहुत सारे लोग भाव के साथ जीते हैं, और बहुत सारे लोग अभाव के साथ जीते हैं । कोई जन्म से ही ऐश्वर्यशाली रहा और मरने तक ऐश्वर्यशाली बना रहा, यह तो विकल्प हो सकता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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