SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्न है दृष्टिकोण का प्रश्न सामने आता है कि हिन्दुस्तान में बहुत धर्म हैं। बहुत धार्मिक लोग हैं। फिर भी अनैतिकता और अप्रामाणिकता क्यों है ? यह प्रश्न सैकड़ों-सैकड़ों बार पूछा गया। यह चिंतनीय प्रश्न है। यदि धर्म है तो अनैतिकता नहीं हो सकती और अनैतिकता है तो धर्म नहीं हो सकता । दोनों एक साथ नहीं रह सकते। इनका सह-अस्तित्व हो नहीं सकता। क्या यह प्रश्न धार्मिक व्यक्ति के मन को आंदोलित करने वाला प्रश्न नहीं है ? नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। सचमुच धार्मिक व्यक्ति का मन आंदोलित होना चाहिए वर्तमान स्थिति को देखकर। उस आंदोलन में से धर्म के प्रति एक प्रश्न उभरता है कि क्या आज धर्म में कोई शक्ति है या एक शक्तिहीन. धर्म चल रहा है ? सचमुच एक प्रश्न-चिह्न है । जो लोग केवल रूढ़ि के आधार पर धर्म करते चले जा रहे हैं, वे शायद न सोचें, किन्तु जिनमें थोड़ा-सा चिंतन है और सोचने की क्षमता है, उन्हें अवश्य सोचना होगा। इस संदर्भ में पहले भी सोचा गया था, आज भी सोचना है । पहले धर्म पैदा नहीं होता। पहले धर्म की श्रद्धा पैदा होती है । पहले श्रद्धा और बाद में धर्म । पहले श्रद्धा पैदा नहीं होती, पहले एक वेग आता है । वेग होता है और फिर श्रद्धा पैदा होती है। वेग, श्रद्धा और धर्म -- यह क्रम बनता है । हम धर्म की बात सोचते हैं, उससे पहले श्रद्धा की बात सोचनी है और उससे पहले वेग की बात सोचनी है । पानी में वेग नहीं है तो लहर में वेग आगे नहीं जाएगा । जहां वेग कम होता है वहां लिफ्ट देनी होती है जिससे कि पानी वेग के साथ आगे जाए । वेग ही नहीं है तो पानी आगे जाएगा ही नहीं । सबसे पहले वेग की बात आती है। प्रत्येक आदमी वेग में जीता है । वेग है आवेग। इसे कर्मशास्त्र की भाषा में कषाय और मनोविज्ञान की भाषा में इमोशन कह सकते हैं। हर आदमी इमोशन या आवेग के साथ जीता है । ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं मिलेगा जो आवेग से मुक्त होकर जी रहा है । जब तक आवेग रहता है तब तक धर्म की बात सोची नहीं जा सकती । श्रद्धा की बात भी सोची नहीं जा सकती। मूर्छा प्रबल होती है तब तक आवेग रहता है । आवेग और मूर्छा का जोड़ा है। जहा मूर्छा है वहां आवेग है। आवेग है वहां मूर्छा है। इसीलिए आदमी अनेक कष्टों को झेल लेता है और उन्हें अच्छा भी मानता है, क्योंकि मूर्छा में जी रहा है। उसे सचाई का पता नहीं चलता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy