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________________ मैत्री : बुढ़ापे के साथ संन्यासी ने कहा 'यह हंस तो नहीं है पर कौआ है।' उस औरत ने कहा, 'नहीं, महाराज ! यह हंस ही है, कौआ नहीं है ।' तब उस संन्यासी ने कहा, चलो ठीक है । कोई बात नहीं। अपनी-अपनी दृष्टि होती है। मेरी दृष्टि में कौआ है और तुम्हरी दृष्टि में हंस है । पर एक बात का ध्यान रखना कि आग्रह मत करना, अकड़ना मत, बात को पकड़ कर मत बैठ जाना। फिर कभी सोचना और सत्य की खोज के लिए दरवाजे को खुला रखना।' यह कहकर संन्यासी चला गया। वह औरत उसके पीछे दौड़ी और बोली"महाराज ! एक बार आप फिर पधारें।" संन्यासी उसके घर पुनः आए। उसने अपने पति को बुलाया और कहा, 'ये गुरु बनने योग्य हैं । इन्हें हम गुरु बनायेंगे।' जिसमें आग्रह नहीं होता और जो व्यक्ति सत्य की खोज के लिए अपना दरवाजा खुला रखता है, जिसमें अकड़न नहीं होती वह गुरु बन सकता है। बुढ़ापा भी उसे नहीं सताता जिसमें अकड़न नहीं होती। एक बात जरूर है कि आदमी जैसे-जैसे बूढ़ा बनता है उसमें आग्रह ज्यादा आ जाता है, अकड़न ज्यादा आ जाती है। शरीर की अकड़न आती है तो बात की पकड़ भी आती है। वह अपनी बात को छोड़ना नहीं चाहता। दूसरों को कहता है कि तुम क्या जानते हो। तुमने जितना आटा खाया है उतना तो मैंने नमक खा लिया है । यह दुहाई देता है और अपनी बात को मनवाने का प्रयत्न करता है। यह अकड़न है और यह दुःख देती है। अनाग्रह एक सूत्र है बुढ़ापे के साथ मैत्री करने का। बुढ़ापे के साथ मैत्री करने का दूसरा सूत्र है-इन्द्रिय का संयम। इन्द्रिय का जितना असंयम होता है उतना ही जल्दी बुढ़ापा आता है। और जितना जल्दी बुढ़ापा आता है वह उतना ही दुःख देता है उसका बुढ़ापा बहुत दुःखद बन जाता है । बुढ़ापे के साथ मैत्री करने का तीसरा सूत्र है-आहार-संयम, परिमित भोजन । बूढ़ापे का एक कारण है पाचक रसों की कमी। जैसे-जैसे अवस्था बीतती है, पाचक रस कम होने लग जाते हैं । बीस वर्ष की अवस्था तक पाचक रस ठीक होते हैं और तीस तक भी ठीक होते हैं। उसके बाद पाचक रस कमजोर होने लग जाते हैं, आधा बनने लग जाते हैं । न तो लीवर उतना पाचक रस छोड़ता है, न पेन्क्रियाज ठीक काम करते हैं, न आमाशय, न पक्वाशय और न आतें उतना ठीक काम करती हैं। वे घिस जाती हैं, क्षीण हो जाती हैं । उस अवस्था में पाचक रस तो कम बनते हैं और खाना और भारी हो जाता है। खाने की चीजें भारी हो गई तो बुढ़ापा और जल्दी आएगा और आएगा वह भी दुःख देने वाला आएगा । जब कि ४० वर्ष के बाद भोजन में परिवर्तन होना जरूरी है । बुढ़ापे के साथ मैत्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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