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________________ जीवन की पोथी पूरा उतरता नहीं। रीढ़ की हड्डी कड़ी पड़ जाती है तो बुढ़ापा जल्दी उतर आता है। न केवल हड्डियों की अकड़न, किन्तु विचारों की अकड़न भी बुढ़ापा ला देती है । जो आदमी बहुत आग्रही होता है, जिद्दी होता है, अपनी बात पर टस से मस नहीं होता, वह भी जल्दी बूढ़ा होता है । अनाग्रह बुढ़ापे को रोकता है और आग्रह बुढ़ापा लाता है । बुढ़ापा वांछनीय नहीं माना गया, दुःख माना गया है । यह भय का कारण है। जो तपस्वी, संन्यासी और मुनि बने उसके पीछे एक दुःख की प्रेरणा रही। तीन-चार दुःख सामने आए ---- बुढ़ापा दुःख है । बीमारी दुःख है । मरना दुःख और जन्म लेना भी दुःख है । तो बुढ़ापा एक है। इसमें कोई संदेह नहीं । बुढ़ापा सुखद नहीं है, दुःखद है । किन्तु धर्म के लोगों ने एक नई बात खोजी कि दुःख को सुख में बदला जा सकता है । यह जरूरी नहीं कि दुःख को आदमी भोगे । इसे सुख में बदला जा सकता है । यह एक अद्भुत खोज है। कैसे बदला जा सकता है, यह एक प्रश्न है । उसका पहला सूत्र है--अनाग्रह का विकास, अकड़न को मिटाना । अनाग्रह का अर्थ है-बुढ़ापे के साथ मैत्री करना । बुढ़ापे को दुःख में न बदल कर सुख में परिवर्तित कर देना।। .. एक गृहस्थ ने सोचा, मुझे गुरु बनाना है, किसको बनाऊं ? उसने कुछ लोगों को खोजा, लेकिन पसन्द नहीं आये। तब उसकी पत्नी ने कहा 'गुरु की खोज का काम आप मुझे सौप दें। यह आप से निभेगा नहीं। उसने पत्नी को काम सौंप दिया। पत्नी बड़ी होशियार थी। उसने एक पिंजरा लिया और उसमें कौए को डाल दिया। बड़ा घर था गांव में, जो भी साधु-संन्यासी आते उनके घर भिक्षा के लिए अवश्य आते । एक संन्यासी आया। बड़े आवभगत के साथ उसने भिक्षा दी। फिर उस औरत ने कहामहाराज ! एक दृष्टि इधर डालें और देखें कि मेरा हंस कितना अच्छा है ?' संन्यासी ने देखा और कहा 'यह हंस कहां है ? यह काला कौआ है।' तब उस औरत ने कहा-'महाराज ! आपकी आंख साफ नहीं है। यह तो मेरा पाला हुआ हंस है।' संन्यासी बड़-बड़ाया और गुस्से में आ गया। फिर वह बोली-'महाराज' ! ठीक है, आप पधारें। दो आये, तीन आये, चार और पांच आए। अनेक आए । बस वही आवेश और वही जिद्द । न यह मानती और न वे। जो भी आता वह दो-चार गालियां बक देता और चला जाता । गुरु कोई मिला नहीं । एक दिन एक वृद्ध अनुभवी संन्यासी आया। औरत ने फिर वही प्रश्न किया-महाराज ! जरा दृष्टि तो डालें और देखें कि मेरा हंस कितना अच्छा है ? संन्यासी ने देखा और कहा, 'यह तो कौआ है हंस नहीं है, बहिन ?' उस औरत ने कहा-'महाराज ! आप ध्यान से देखें, आंख को साफ कर देखें, यह तो हंस है मेरा पाला हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org WW
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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