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जीवन की पोथी
रोग के साथ मैत्री की, उन्होंने सचमुच रोग को विफल बना दिया। शत्रुता स्थापित कर आप उसे कभी निष्फल नहीं बना सकते । आप मैत्री स्थापित करें, रोग निकम्मा बन जाएगा। आया था आपको सताने के लिए और हार मानकर पलायन कर गया। रोग सोचता है -यह रोगी मेरा लाभ ही नहीं उठा रहा है। रोग का लाभ होता है, चिल्लाना कराहना । यह होता है तब तो रोग समझता है मेरा यहां आना सफल हुआ। रोग आया, न कोई चिल्लाहट, न कोई कष्ट, तब वह सोचता है कि कहां फंस गया । मेरा तो कोई काम ही नहीं हो रहा है यहां । उसको अपनी व्यर्थता का अनुभव होगा और वह शायद अपने आप जाने की बात सोचेगा।
जयाचार्य ने आराधना की आठवीं ढाल में इसका जो मर्म बताया है, वह इतना सुन्दर है कि भयंकर से भयंकर पीड़ा के समय जब वह मंत्र सुनाया जाता है तो न जाने कष्ट कहां चला जाता है, पीड़ा कहां चली जाती है और रोगी एकदम खिल जाता है, पीड़ा के साथ जूझने लग जाता है। उसका जीवन बदल जाता है।
हम अध्यात्म के क्षेत्र में धर्म को केवल रूढ़ि मानकर न चलें। उसे प्रयोगात्मक बनाएं । ऐसा प्रयोग करें, जिससे कि औषधियां, डॉक्टर इनकी शरण हमें लेनी न पड़े। कभी लेनी भी पड़े तो वह अन्तिम समाधान न रहे। अन्तिम समाधान रहे मैत्री। मैत्री का प्रयोग करें, जिससे कि हम भीतर में और बाहर में अपने आपको आश्वस्त रख सकें।
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