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________________ मैत्री : रोग के साथ २९ रहा हूं। दोनों साथ-साथ रह रहे हैं । कोई समस्या नहीं, कोई उलझन नहीं। दोनों बरोबर चल रहे हैं।' यह है बीमारी के साथ मंत्री का प्रयोग, मैत्री की स्थापना । चाहते तो कभी की बीमारी को समाप्त कर सकते थे। पर मित्र की तरह उसको स्थान दिए हुए थे । मित्र की तरह दोनों साथ-साथ बैठे हुए थे। किसी को उठने की जरूरत नहीं है । यह कम संभव है, जब अकेलेपन का अनुभव किया जा सके । रोग में रहने पर भी अरोग का अनुभव हो जाए। रोग शरीर को घेरे हुए है, किन्तु उसके भीतर में एक अरोग आत्मा बैठा हुआ है। वह चैतन्यमय है। उसके रोग नहीं होता। वह परमात्मा उसके भीतर बैठा है। उस रोग का अनुभव हो जाए तो रोग के साथ मैत्री स्थापित की जा सकती है । जब तक उस अरोग का अनुभव नहीं होता, कभी मैत्री स्थापित नहीं की जा सकती। यह ध्यान का प्रयत्न उस अरोग को पकड़ने का प्रयत्न है। जो सदा शाश्वत अरोग है, कभी बीमार नहीं होता, उसे पकड़ने का प्रयत्न है। वहां कैसे पहुंचे ? वह बहुत भीतर में बैठा है। इतना भीतर है, इतनी गहराई है कि जितनी गहराई समुद्र की भी नहीं है। समुद्र की गहराई तो बहुत थोड़ी है । पर उसकी इतनी ज्यादा गहराई है कि वहां तक पहुंचना बहुत मुश्किल है। वहां वही पहुंच पाता है जो ध्यान की साधना में लग जाता है। ___ ध्यान का मतलब है बाहर से संपर्क तोड़कर भीतर की गहराई में डुबकी लगाना । जब तक बाहर से संपर्क बना रहता है आदमी भीतर की गहराई में जा ही नहीं पाता। बाहर में बड़ी खींचातानी रहती है। कोई इधर खींचता है और कोई उधर खींचता है, कभी शब्द खींचता है, कभी रूप खींचता है, कभी स्वाद खींचता है, पूरी खींचातानी लगी हुई है। ___ अब हम सभी झंझटों से मुक्त होकर भीतर के जगत् में जाएं जहां खींचातानी नहीं। उसकी एक अलग ही दुनिया है। उस दुनिया में प्रवेश करना, इसी का नाम है-ध्यान । खींचातानी से मुक्त होकर अन्दर में चले जाएं, भीतर का अनुभव करें और उस गहराई में डुबकी लगाएं । यह स्थिति जब प्राप्त होती है तभी आदमी दूसरे के साथ मैत्री स्थापित कर सकता है। यदि अपना अच्छा करने वाले के साथ मैत्री स्थापित करें तो क्या उसे मैत्री कहा जाए ?नहीं, उसे स्वार्थ कहा जाएगा। जो सामने हित साध रहा है उसके साथ यदि कोई मैत्री करे तो वह स्वार्थ की बात हुई । मैत्री वह नहीं होती । मैत्री वह होती है कि सामने बाला अच्छा करता है या बुरा करता है, चोट पहुंचाता है या लाभ करता है, सबके साथ मैत्री । मैत्री होती है तो सबके साथ होती है । और नहीं होती है तो किसी के साथ नहीं होती ! यह मैत्री का सिद्धांत है तो भला, रोग के साथ मैत्री क्यों नहीं होती ! जिन लोगों। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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