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________________ जीवन की पोथी मुक्त नहीं हो पाया। मेरी पत्नी भीगी आंखों से मेरे पास बैठी रहती, सेवा करती रहती फिर भी मुझे पीड़ा-मुक्त नहीं कर सकी। कोई कुछ भी नहीं कर सकता । मैं पीड़ा भोगता रहा । इधर सब उपचार में लगे हैं और मैं पीड़ा में लगा हूं, क्या यह यों ही चलेगा? मैं पीड़ा ही भोगता रहूंगा ? नहीं मुझे बदलना है। मन में संकल्प आया, विकल्प के बाद संकल्प कि यदि मैं पीड़ा से मुक्त हो जाऊं तो मैं मुनि बने जाऊं । संकल्प के साथ सोए । भयंकर पीड़ा थी, नींद आ ही नहीं रही थी। नींद आ गई। उठे तो पीड़ा बिलकुल शांत । जैसे कोई दर्द हुआ ही नहीं। अब अनाथी मुनि बन गए । यह है संकल्प का प्रयोग । संकल्प के द्वारा आदमी रोग के साथ मैत्री स्थापित करता है और पीड़ा को बिलकुल शांत कर देता है । जीवन में अनेक स्थितियां आती हैं, विषमताएं आती हैं । यदि हम आन्तरिक शक्तियों का उपयोग करें, अपने भीतर की शक्तियों का उपयोग करें तो बहुत विषमताओं को कम किया जा सकता है। किन्तु आदमी का दृष्टिकोण केवल बहिर्मुखी बना हुआ है । वह हर समस्या के मूल को बाहर ही खोजता है और हर समाधान बाहर ही ढूंढता है, भीतर में समाधान खोजता ही नहीं है । यह एकांगीपन आदमी को ज्यादा संकट में डाले हुए है । यदि आदमी सर्वांगीण बन जाए, बाहर में खोजता है, पर भीतर में भी समाधान खोजने लग जाए, इससे बहुत कुछ उपलब्ध हो सकता है। पहले चिकित्सक बाहर में ही समाधान खोजते थे, किन्तु बाद में भीतर में भी समाधान खोजा जाने लगा। इससे मानसिक चिकित्सा, आध्यात्मिक चिकित्सा और संकल्प चिकित्सा का विकास हुआ, ध्वनि चिकित्सा का विकास हुआ । भीतर की अनेक चिकित्साओं का विकास हुआ। उन्हें लगा कि भीतर में समाधान है। उसे खोजा जा सकता है। आज के वैज्ञानिक इस बात में बहुत आगे बढ़ गए। रसायनों की जब खोज चली है, बायोकेमिस्ट्री का विकास हुआ है और जैविक रसायनों पर जब ध्यान केन्द्रित हुआ है तो इस विषय में और प्रगति हो गई कि भीतर में हजारों-हजारों प्रकार के रसायन बनते हैं । वे रसायन हमारी सहायता करते हैं । यह आन्तरिक रसायनों को जानने की प्रकिया एक प्रकार से आध्यात्मिक चिकित्सा की प्रक्रिया है। धर्म के लोगों ने बहुत पहले ही खोज लिया था कि भाव प्रक्रिया के द्वारा रसायनों को बदला जा सकता है। उन्होंने विश्वास का, आस्था का और संकल्प का प्रयोग किया और सहिष्णुता का प्रयोग किया। एक बहुत बड़ी शक्ति है रोग के साथ मैत्री स्थापित करने की, सहन करने की शक्ति । जो आदमी सहन करने की शक्ति को बढ़ा लेता है वह रोग के साथ मैत्री स्थापित कर सकता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मिलता है चक्रवर्ती सनत्कुमार का, वे रोग के साथ मैत्री स्थापित कर रोग को अपने शरीर में स्थान देते थे—'तुम भी रहो और मैं भी रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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