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मैत्री : रोग के साथ
पूछा गया, बदलता कौन है ? भगवान् महावीर ने उत्तर दिया अस्थिर बदलता है, स्थिर नहीं बदलता । पदार्थ में दो गुण होते हैं। एक अस्थिर और दूसरा स्थिर । स्थिर केन्द्र में रहता है और अस्थिर परिधि में । प्रत्येक पदार्थ का मूल स्थिर है। उसके आसपास बदलाव होता रहता है। नाना परिवर्तनों में ही अपरिवर्तित रहता है, वह अकेला है। आत्मा अकली है, वह स्थिर है । आत्माएं बदलती रहती हैं। कषाय आत्मा--आवेश बदलते रहते हैं। कभी क्रोध, कभी अहंकार, कभी कपट. कभी लोभ, कभी भय, कभी हास्य और कभी काम-वासना । ये स्थिर नहीं रहते हैं, बदलते रहते हैं, किंतु इन सभी के बीच एक ऐसा तत्त्व है जो कभी नहीं बदलता।
चंचलता बदलती रहती है। कभी मन चंचल, कभी वाणी चंचल, कभी शरीर चंचल । ये सब आत्माएं एक मूल आत्मा के आसपास होने वाले परिवर्तन की आत्माएं हैं। इन नाना रूपों में जो परिवर्तित रहने वाला है उसे समझने वाला ही वास्तव में अकेला हो सकता है, अनेक के बीच रहने वाला अकेला, जो नाना अवस्थाओं का अनुभव करता है पर अपने अकेलेपन की विस्मृति नहीं करता। जो अकेला होता है वही दूसरे के साथ मैत्री स्थापित कर सकता है। शरीर में नाना प्रकार की अवस्थायें आती हैं। आदमी बीमार होता है । बूढ़ा होता है। कभी दुःखी होता है और कभी सुखी । नाना प्रकार की अवस्थाएं आती हैं। उन अवस्थाओं के साथ मैत्री स्थापित करना एक बहुत बड़ा सत्य है । उस सत्य को वही पकड़ पाता है जो वास्तव में अकेला होता है । अकेला व्यक्ति पीड़ा के साथ और रोग के साथ मैत्री स्थापित कर सकता है।
तीन दुःख बतलाए गए हैं-रोग, बुढ़ापा और मौत । चौथा हैजन्म । उसकी अनुभूति नहीं होती। आदमी को अनुभूति होती है रोग के दुःख की। भला, दुःख के साथ मैत्री कैसे स्थापित हो सकती है ? दुःख आने पर आदमी बेचैन होता है। आर्तध्यान का एक लक्ष्ण है... रोग आने पर दुःखी होना । सामान्यतः हर आदमी को रोग आता है, पीड़ा होती है । तब वह आर्तध्यान में चला जाता है। रोता है, बिलखता है, चिल्लाता है और क्रन्दन करता है। और कभी-कभी तो इतना विलाप करता है कि घरवालों को ही नहीं, पास-पड़ोस को भी जगा देता है। नींद हराम कर देता है। यह एक अवस्था है कि आदमी की बीमारी के साथ एक पीड़ा उतरती है।
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