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________________ या में ईश्वर हूं? शकायत । उसका तांता टूटता नहीं । एक भाई आकर बोला, मेरे पिता ने मुझे निकाल दिया, कुछ भी नहीं दिया। क्यो नई बात है ! एक भाई आकर बोला, मां ने घर से निकाल दिया । पसंद ही नहीं करती, मुझे चाहती ही नहीं है । क्या नई बात है ! दुनिया का स्वभाव है। यह उसको बताया तो समाधान मिल गया, वह बहुत उलझ रहा था, सुलझ गया । यह तो दुनिया का सिद्धान्त है, कौन-सी इतिहास की नई घटना है। इतिहास भरा पड़ा है इन बातों से, तुम क्यों इतनी चिन्ता करते हो ? उसे समाधान मिल गया । यह सचाई है और यह सचाई हमारे समाधान की बात है । हम प्रेक्षाध्यान द्वारा यदि अकेलेपन की अनुभूति के योग्य बन जाएं तो ईश्वर दूर नहीं है । यह योग्यता न आए तो ईश्वर कभी पास नहीं होगा, कभी साक्षात्कार की बात नहीं होगी। एक बड़ा बरगद का पेड़ । उसके नीचे तीन आदमी बैठे थे। बातचीत चल पड़ी, बोले, प्रार्थना का समय है, प्रार्थना करें। प्रार्थना में बैठते समय फिर बोले कि आज प्रार्थना में मांगें क्या ? एक ने कहा-जंगल में बैठे हैं, बल की आवश्यकता है, हम बल मांग लें। प्रभु की कृपा हो तो हमें बल मिले, शक्ति मिले । दूसरा बोला कि बल तो हमारे शरीर में है हम कमजोर नहीं हैं। बुद्धि मांगें, वह सबसे बड़ा बल होता है। जिसके पास बुद्धि है, उसके पास बल भी है। बुद्धिहीन आदमी के पास बल होगा तो भी वह क्या करेगा। तो बुद्धि मांग लें । तीसरा बोला-बुद्धि से भी क्या होगा ? जब तक श्रद्धा नहीं होगी तब तक कुछ भी नहीं होगा। हम श्रद्धा का ही वरदान मांग लें। इतने में बरगद में से एक आवाज आई कि क्यों विवाद करते हो ? क्यों लड़ते हो ? पहले मांगने योग्य तो बनो। यह झगड़ा छोड़ो। पहले योग्य बनने की जरूरत हैं । अकेले होने की जरूरत है, पर हम पहले अकेले होने की योग्यता प्राप्त करें, अर्हता पैदा करें कि हम भीड़ में रहते हुए भी, समाज में रहते हुए भी, करोड़ों-करोड़ों आदमियों के बीच में रहते हुए भी अपने अकेलेपन को न भूलें । उनके बीच रहते हुए भी अकेले रह सकें। यदि अर्हता प्राप्त होता है तो प्रेक्षाध्यान का प्रयोग बहुत सार्थक हो जाता है। 'मैं ईश्वर हूं' - यह भ्रम भी हो सकता है और वास्तविकता भी हो सकती है । जो केवल शास्त्रों की दुहाई देता है, पुस्तकें पढ़कर किसी पाठ को दोहराता है, तो वह उसका भ्रम है। यदि वास्तव में वह किसी अभ्यास या प्रयोग के द्वारा अपने ब्रह्मत्व या ईश्वरत्व की अनुभूति करता है तो मैं ब्रह्म हूं', 'मैं ईश्वर हूं' वह अनुभूति के स्वर में बोलता है। अनुभूति के स्वर में किसी बात को कहना एक वास्तविकता है और केवल पुनरावृति करना, रर्ट रटाई बात वोलना, वह भ्रम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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