SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्या मैं ईश्वर हूं? दो। श्री अवे-यह आज की नई संस्कृति पनप रही है और यह बहुत पुरानी है अपरिग्रह की संस्कृति । काम में लिया और फेंका । कितना इकट्ठा करोगे? अपने पास जमा करके मत रखो। संग्रह की मनोवृत्ति बांधती है आदमी को । मुक्त होना आदमी जानता ही नहीं है । और जो मुक्त होना नहीं जानता, वह अकेला होना नहीं जानता। सबसे बड़ा समाधान और सबसे बड़ी आनन्दानुभूति उसी को उपलब्ध होती है जो अकेला होना जानता है। अध्यात्म का सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र है—अकेला होना । आदमी जानता है कि वह अकेला जन्म लेता है और अकेला मरता है। वह इस सचाई को जानता है । बीच का सारा जीवन भीड़ में बीतता है, किन्तु भीड़ के कारण वह सत्य से परे चला जाता है और अकेलेपन की परिस्थिति को बिसार देता है। उसे याद ही नहीं रहता कि मैं अकेला आया हूं। उसे याद ही नहीं रहता कि मुझे अकेला जाना है। यह भीड़ इतनी मूर्छा पैदा कर देती है कि दुनिया की महानतम सचाई, अकेलेपन की अनुभूति जो है वह छूट जाती है और भीड़ में उलझ जाती है। ___ अध्यात्म या धर्म के पास यदि कोई सबसे बड़ा समाधान का सूत्र है तो वह है एकत्व की अनुभूति, अकेलेपन की अनुभूति । समाज में, भीड़ में जीते हुए भी अकेलेपन की अनुभूति करते रहने की क्षमता सबसे बड़ा समाधान है। भगवान् महावीर ने सचाई का जीवन जीने के लिए अनुप्रेक्षाओं का बोध दिया। बारह अनुप्रेक्षाएं हैं। ये अनुप्रेक्षाएं मूर्छा के चक्र को तोड़ने वाली हैं। जहां-जहां व्यक्ति में मूर्छा आती है अनुप्रेक्षा का प्रयोग करने से मूर्छा का वक्र टूट जाता है। जो व्यक्ति अनुप्रेक्षा नहीं करता, मूर्छा सघन होती चली जाती है। मूच्छित आदमी का निर्णय उसे असत्य की ओर ले जाता है। यह बहुत तेज धार है अनुप्रेक्षा की, जो चक्र को बढ़ने नहीं देती। उन बारह अनुप्रेक्षाओं में एक अनुप्रेक्षा है अकेलेपन का बोध, अकेलेपन की अनुभूति । अकेला वह होता है जिसमें ममत्व नहीं है, ममकार-मेरापन नहीं है। व्यवहार की बात तो ठीक है। व्यवहार में तो आदमी बोलता है कि यह मेग है, यह मेरा है, किन्तु यह सचाई नहीं है । हम व्यवहार को व्यवहार के जीवन तक ही रहने दें और सचाई का जीवन भी साथ में जीएं । जो आदमी कोरा व्यवहार का जीवन जीता है वह अपने लिए सदा सिरदर्द पैदा करता है । सिरदर्द को वही मिटा सकता है जो व्यवहार के साथ सचाई का जीवन भी जीता है। हमें दोनों प्रकार का जीवन जीना चाहिए । व्यवहार का जीवन तो इसलिए कि हम उसके बिना अपनी आवश्यकताओं को पूरी नहीं कर सकते, अपने लिए जीने का साधन नहीं जुटा सकते। इसलिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy