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क्या ज्ञान ईश्वर है ?
काट सकता । उसने भैंसे की बलि नहीं दी।
सुलस का ज्ञान कषायमुक्त था, जागरूक था। उसका ज्ञान योग बन गया । कालसौकरिक भैसे काटे बिना रह नहीं सकता था तो सुलस भैंसे काट नहीं सकता था । अन्तर क्यों आया ? ज्ञान ज्ञान है। किन्तु जो ज्ञान मूर्छा से जुड़ा होता है, वह बुराई की ओर ले जाता है । जो ज्ञान मूर्छा से विभक्त हो जाता है, स्वतंत्र ज्ञानाधारा के रूप में प्रवाहित होता है, वह ज्ञान आदमी को ईश्वर बनाता है या वह ज्ञान स्वयं ईश्वर होता है।
प्रेक्षाध्यान केवल जानने-देखने का उपक्रम है। यदि कोई पूछे कि प्रेक्षाध्यान की सरलतम परिभाषा क्या है तो यह कहा जा सकता है कि प्रेक्षाध्यान का अर्थ है- केवल जानना, केवल देखना, केवल ज्ञान, केवल दर्शन । कोरा जानना या देखना हम नहीं जानते। हम ही क्या, दुनिया का विरल व्यक्ति ही कोग जानता देखता है। जो कोरा जानता-देखता है वही वीतराग है, ईश्वर है। हम आदमी को उपाधियों के साथ जानते हैं। यह अमुक है, यह प्रिय है, यह अप्रिय है, यह बेईमान है, यह ईमानदार है, यह एम० पी० है, यह मिनिस्टर है । हम कहां जान पाते हैं, देख पाते हैं कि यह चेतन है, यह आत्मा है । हम बाह्य लिबासों से उसे जानते-देखते हैं, परिवेशों के साथ और उपाधियों के साथ उसे पहचानते हैं । यह ज्ञान शुद्ध नहीं होता। व्यवधानों और उपाधियों से मुक्त होकर जानना ही शुद्ध जानना है । जानने के साथ जब राग-द्वेष होता है तब वह ज्ञान हो जाता है और जब राग द्वेष छूट जाता है तब वह जानना ध्यान बन जाता है।
वीतराग कोई अचानक घटना नहीं है । वह धीरे-धीरे फलित होती है । हम वीतराग बन जाएं और पूरे क्षण वीतरागता से जीएं, यह असंभव-सा है । पर हम कुछ क्षण वीतराग नहीं बन सकते, यह भी नहीं है । हम कुछ क्षणों को वीतराग की स्थिति में जी सकते हैं। यह संभाव्यता ही ध्यान की परिणति है !
कोरिया का एक संत था रिझाई। उसके पास एक व्यक्ति आकर बोला .. 'मैं साधना करना चाहता हूं। आप मुझे ऐसा उपाय बताएं कि मुझे सिद्धियां प्राप्त हो जाएं ।' संत ने कहा - 'साधना में कम से कम तीस वर्ष लगाने होंगे ।' वह बोला---'तीस वर्ष !' रिझाई ने कहा---'तीस नहीं, साठ वर्ष लगाने होंगे।' साधक बोला- 'यह क्या ?' तीस के साठ हो गए ?' संत ने कहा-'तुम्हारे मन के संदेह ने तीस वर्ष बढ़ा डाले ।' साधक घर चला गया। घर जाकर सोचा, अरे ! सिद्धि को पाने में यदि पूरी जिन्दगी बीत जाए तो कौनसी बड़ी बात है ! मैंने मूर्खता कर दी। वह पुन: लौट आया संत रिझाई के पास । वह संत से बोला--क्षमा करें। मैंने उतावले में नासमझी कर डाली। सिद्धि के लिए जितना भी समय लगे, वह मुझे
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