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जीवन की पोथी
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तैयारी नहीं की जा रही है ? क्या ज्ञान इतना नहीं बढ़ गया है कि दस-बीस मिनिट में सारे संसार को खाक में बदल दे ? यह सब उसी ज्ञान के द्वारा हो रहा है, जिस ज्ञान ने आदमी को ज्यादा से ज्यादा सुख-सुविधाएं दी हैं । जो ज्ञान सुख-सुविधाएं दे रहा है वही ज्ञान मनुष्य के संहार की उपलब्धि भी करा रहा है यह विरोधाभास समझ से परे है । एक ओर मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए अरबों रुपयों का खर्च कर औषधियों की खोज की जा रही है, सुखसुविधाओं और पदार्थ विकास के लिए भरपूर चेष्टाएं की जा रही हैं । आदमी की औसत आयु की वृद्धि के अनेक प्रयत्न हो रहे हैं तो दूसरी ओर ऐसे भयंकर शस्त्रास्त्रों का निर्माण भी किया जा रहा है जिनसे मनुष्य को अल्पतम समय में मारा जा सके, मानवजाति को नेस्तनाबूद किया जा सके । यह विरोधाभास किससे पैदा हुआ ? यह उसी ज्ञान से उत्पन्न हुआ है जो ज्ञान आसक्ति और राग-द्वेष इन दो तटों के बीच बह रहा है । उस ज्ञान की धारा ने यह स्थिति उत्पन्न की है। तक मनुष्य का ज्ञान राग-द्वेष से संवलित रहेगा, तब तक विरोधाभास बढ़ता रहेगा, फलता-फूलता रहेगा । यह सचाई है । पर यह सचाई उन लोगों की समझ में नहीं आ रही है जो राग-द्वेष का जीवन जी रहे हैं । उन्हें यह सारा विरोधाभास नहीं लगता । शस्त्रों का निर्माण करने वालों का तर्क है कि वे शक्ति-संतुलन के लिए शस्त्रों का निर्माण कर रहे हैं न कि मानव-संहार के लिए। वही अधिक शक्तिशाली होता है, जिसके पास अधिक शस्त्रास्त्र होते हैं । जब मूर्च्छा टूटती है तब विरोधाभास का भान होता है, सोचनेसमझने का अवसर मिलता है और आदमी तब जान पाता है कि क्या कुछ गलत हो रहा है । जब ज्ञान मूर्च्छा और आसक्ति के साथ चलता है तब आदमी पाताल में भी बुराई को खोज लेता है ।
जब
धर्मराज के समक्ष व्यापारी को उपस्थित किया गया । धर्मराज ने पूछा बोलो, कहां जाना चाहते हो ? स्वर्ग में या नरक में ? व्यापारी बोला- मुझे स्वर्ग या नरक से कोई मतलब नहीं है। जहां दो पैसों की कमाई हो, वहां भेज दीजिए। यह आसक्ति का उदाहरण है । धन की आसक्ति होती है, वह ऐसा कह सकता है ।
काल सौकरिक अपने जमाने का प्रसिद्ध कसाई था । वह प्रतिदिन पांच सौ भैंसे मारता था । सम्राट ने उसे अन्धकूप में उतार दिया। वहां भी वह मिट्टी के काल्पनिक भैंसे बना अपना व्यसन पूरा करता रहा । यह एक प्रकार की आसक्ति थी ।
वह मर गया। उसके उस समय एक भैंसे की बलि सुलस को भैंसा मारने के
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पुत्र सुलस को देनी होती थी । लिए कहा गया ।
कुल का मुखिया बनाना था । सारे कौटुम्बिक एकत्रित थे । सुलस बोला — मैं भैंसा नहीं
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