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________________ १९२ जीवन की पोथी जाता है, जहां हमारा स्वभाव बनता है, वहां जाकर जागें, यह है जागना। यदि हम वहां नहीं पहुंच पाते हैं तो जागने और सोने में कोई अन्तर नहीं होता । दोनों एक जैसे हैं । जागना सोना है और सोना जागना है। तो वहां जागकर जागना है जहां आदमी का व्यवहार बदलता है। आज एक ज्वलंत प्रश्न सामने आता है कि आज धर्म चल रहा है, पर व्यवहार बदल नहीं पा रहा है। आदमी वैसा का वैसा है। इसके कारण की खोज अणुव्रत आंदोलन ने की । उसका सूत्र है कि धर्म का आचरण मुख्य है, उपासना नहीं । पहला स्थान है धर्म का और दूसरा स्थान है उपासना का । परन्तु आज उपासना ने धर्म को पीछे ढकेल कर पहला स्थान ग्रहण कर लिया है, इसलिए धर्म निस्तेज-सा प्रतीक होने लगा है और उसका जो परिणाम आना चाहिए, वह नहीं आ रहा है। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उपासना का अधिकार उसी व्यक्ति को मिलना चाहिए जिस व्यक्ति का आचरण पवित्र है । यदि अपवित्र आचरण वाला व्यक्ति भगवान् का जाप करेगा तो क्या भगवान् को संकोच नहीं होगा? व्यवहार में भी हम देखते हैं कि चरित्रवान् व्यक्ति चरित्रभ्रष्ट व्यक्ति के पास बैठने में संकोच का अनुभव करता है तो क्या भगवान् अपवित्र आचरण वाले के जाप से संकोच का अनुभव नहीं करेगा ? जैन परम्परा में पापों की एक वर्गीकृत सूची है। उसमें अठारह पाप बतलाए गए हैं । यदि इन पापों को सामने रखकर आदमी जीवन व्यवहार करता है तो वह स्वत: अनेक बातों से बच जाता है । सबकी नहीं, दो-चार पापों की चर्चा प्रस्तुत करता हूं। अठारह में से ये चार पाप हैं-कलह, अभ्याख्यान, पशून्य और पर-परिवाद । इनकी भाषा शाश्वत है। कल एक भाई ने पूछा था, क्या पुण्य और पाप की भाषा शाश्वत है या अशाश्वत ? सामाजिक मूल्यों के संदर्भ में पुण्य और पाप की भाषा बदलती रहती है और राग-द्वेष के संदर्भ में उनकी भाषा शाश्वत है। कलह कालिक दोष है। आदमी को कलह में बहुत रस आता है । वह सदा कलह से बचना नहीं चाहता. फंसना चाहता है। धार्मिक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि सदा कलह से बचने का अभ्यास करे। जान-बूझकर कलह तो करे ही नहीं, बचे अवश्य । जागरूक जीवन का पहला सूत्र है-कलहमुक्ति । जागरूक जीवन का दूसरा सूत्र है-अभ्याख्यानमुक्ति । अभ्याख्यान का अर्थ है - झूठा दोषारोपण करना, किसी पर दोष मंढना पूरी जानकारी किए बिना ही कह देना कि अमुक व्यक्ति ऐसा है, अमुक व्यक्ति वैसा है। यह बहुत बड़ा अपराध है । व्यक्ति की हत्या कर देना है। किसी कि हत्या कर दी । वह मर गया । मरना सबको होता है। चाहे किसी की मृत्यु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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