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जागरूकता : दिशा-परिवर्तन
१८७ है। 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का स्वर अन्तर आत्मा में इतना मुखर बना कि उन्हें कभी ग्राह्य नहीं हुआ कि मेरे विवाह के लिए हजारों प्राणियों की बलि दी जाए।
जब तक दिशा नहीं बदलती, तब तक जागरूकता नहीं आती।
पिता ने पुत्र से कहा- शहर में विद्वान् मुनि आए हैं। उनका प्रवचन सुना करो। चलो, आज मेरे साथ । बेटा बाप के साथ प्रवचन सुनने गया । मुनि ने अद्वैत पर प्रवचन किया और यह स्पष्ट समझाया कि सभी प्राणी समान हैं, आत्माएं सामान हैं। पिता ने भी सुना, पुत्र ने भी सुना। पुत्र का ग्रन्थिभेद हुआ, दिशा बदल गई। पिता घर गया और पुत्र दुकान पर जा बैठा । किराने की दुकान थी। यत्र-तत्र अनाज के ढेर लगे हुए थे। एक गाय अनाज खाने लगी। पुत्र देखता रहा । इतने में पिता आ गया। आते ही वह पुत्र पर आग-बबूला हो गया। पुत्र बोला---पिताजी ! आज ही तो मुनिजी ने बताया था कि सब आत्माएं समान हैं। फिर गाय की आत्मा में और हमारी आत्मा में अन्तर ही क्या है ? पिता बोला-वह प्रवचन की बात है, व्यवहार की नहीं। यदि तू ऐसा ही करेगा तो दूकान चौपट हो जाएगी। सब जगह एक ही बात नहीं चल सकती।
बाप का दिशा-परिवर्तन नहीं हुआ, इसलिए सुनकर भी वह खाली रह गया। बेटे का दिशा-परिवर्तन हुआ और वह खाली नहीं रहा, पूर्ण हो गया, जाग गया। जिसमें दिशा-परिवर्तन हो जाता है, उसका आचरण भिन्न होता है।
साधना का अर्थ है-दिशा का परिवर्तन । यह स्वतः नहीं होता। इनके लिए प्रयोग होते हैं। धर्म को केवल सुनने से सब में दिशा-परिवर्तन नहीं होता। उसको जीना होता है । सिद्धांत हमें कहीं नहीं पहुंचाता। सुनी हुई बात दूर तक नहीं ले जाती। हमें प्रयोगों से गुजरना होता है। केवल सुनना भार को बढ़ाना है । आदमी आखिर कितना भार बढ़ाएगा ? निर्भार बनने के लिए परिवर्तन करना ही होगा। जो सुनते हैं, उसे जीवन में घोल दें, तो भार नहीं बढ़ेगा। चीनी भारी होती है। एक कटोरा पानी से लबालब भरा है। एक बूंद भी उसमें नहीं समा सकती। पर आप उसमें चीनी डालें। वह समा जाएगी, क्योंकि वह पानी में घुल जाती है। इसी प्रकार जो सुना है, उसे आचरण में घोल दें। भार नहीं बढ़ेगा और आचरण भी सुस्वादु हो जाएगा।
परिवर्तन के लिए सिद्धांत ही नहीं, प्रयोग की आवश्यकता है। हम सिद्धांत और प्रयोग-दोनों का समन्वय कर दिशा-परिवर्तन का अनुभव करें।
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