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________________ १८६ जीवन की पोथी जाए तो गरीब आदमी भी परधन को पत्थर समझ कर उसका स्पर्श नहीं करता । एक घटित घटना है। दिल्ली के एक होटल में चार युवक आए । नाश्ता - पानी किया और चले गए। होटल मालिक ने देखा कि वे युवक अपना ट्रांजिस्टर वहीं भूल गए हैं। वह उनकी खोज में स्टेशन की ओर दौड़ा । चारों युवक एक डिब्बे में बैठ चुके थे । गाड़ी के रवाना होने में कुछ विलम्ब था । वे आपस में बतिया रहे थे कि देखो, आज हमने उस होटल मालिक को कितना चकमा दिया। बिल आधा चुकाया और आ गए। इतने में वही होटल मालिक उनको ढूंढते ढूंढ़ते वहां पहुचा और बोला- 'आप मेरी होटल पर नाश्ता करने आए थे। वहां आप यह ट्रांजिस्टर भूल आए । इसे संभालें : ' युवक अवाक् रह गए । प्रामाणिकता का संबंध न गरीबी से है और न अमीरी से । उसका सम्बन्ध है दिशा परिवर्तन से । तीसरी बात है - 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' । वही व्यक्ति सभी प्राणियों को अपने समान समझता है, जिसमें दिशा-परिवर्तन घटित हो चुका है । 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का सिद्धांत बहुत विराट् और उदात्त है । पर इसका आचरण उतना उदत्त नहीं रहा, क्योंकि दिशा बदली नहीं । इसीलिए इतने छोटे-छोटे भेद होते गए कि उनका कहीं अन्त नहीं है । दूसरों को छोटा और तुच्छ मानने में बड़ा रस है लोगों में । वे दूसरों को छोटा मानकर अपने बड़प्पन को पालते हैं और इसी में उन्हें संतोष मिलता है । हम हजार बार 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का सिद्धांत दोहराएं, कुछ भी आना-जाना नहीं है । यह सार्थक तब होता है, जब दिशा बदलती है । राजकुमार अरिष्टनेमि विवाह करने के लिए जा रहे थे। रास्ते में पशुओं का करुण क्रन्दन सुना । सारथी ने पूछा - 'यह करुण चीत्कार कहां से आ रही है ! इतने पशु क्यों एकत्रित किए गए हैं ?' सारथी बोला - 'ये पशु बारातियों के लिए भोज्य वस्तु है । अरिष्टनेमि ने पूछा- क्या ये मारे ? सारथी बोला- हां । । अब मैं उधर नहीं जा जाएंगे ? क्या ये सब मृत्यु के भय से चिल्ला रहे हैं अरिष्टनेमि ने कहा - सारथी ! रथ को मोड़ दो सकता । रथ का मुंह क्या मोड़ा, अरिष्टनेमि का मुंह मुड़ गया । जा रहे थे विवाह करने के लिए और चल पड़े सन्यास ग्रहण करने के लिए पर्वत की ओर । तत्काल मुनि बन गए । यह है दिशा परिवर्तन | जिसकी दिशा बदल जाती है, वह जागरूक बन जाता है। जब तक जीवन की दिशा नहीं बदलती तब तक संभव नहीं होता, सब जीवों को अपने समान समझना संभव नहीं होता । अरिष्टनेमि ने समझ लिया था कि जैसी मेरी आत्मा है, वैसी ही आत्मा इन सब पशुओं में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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