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________________ जागरूकता : दिशा-परिवर्तन १८५ की भांति, सभी प्राणियों को अपने तुल्य देखता है, वही द्रष्टा है, वही वास्तव में देखता है। जो ऐसा नहीं देखता, वह देखता हुआ भी कुछ नही देखता, आंख होने पर भी अंधा है। कुछ आंख वाले अधे होते हैं और कुछ बिना आंख वाले द्रष्टा होते हैं । ऐसे साधक हुए हैं, जिनके चर्मचक्षु नहीं थे, पर वे द्रष्टा बन गए। लाखों-करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें आंखें प्राप्त हैं, पर वे देखना नहीं जानते इसलिए अंधे हैं। प्रश्न होता है कि क्या 'मातृवत् परदारेषु' यह संभव है ? यह संभव असंभव दोनों है। जिसके जीवन में दिशा बदल गई, उसके लिए सम्भव है और जिसके जीवन की दशा नहीं बदली, उसके लिए असंभव है। बच्चा मां का स्तनपान करता है। कोई विकार नहीं, कोई प्रदूषण नहीं, कोई दृष्टि का दोष नहीं। वह जो करता है वह सहज होता है । सरस्वती और काली का भक्त उनकी आराधना करता है। उसके मन में कोई विकार नहीं आता। श्रद्धा जागती है। ___ दिगम्बर प्रतिमाएं और मुनि नग्न रहते हैं। स्त्रियां उनकी भक्ति करती हैं, चरण स्पर्श करती हैं, पूजा करती हैं। क्या उसके मन में कोई विकार जागता है ? नहीं, शरीर के जो अवयव विकार के निमित्त बनते हैं वे ही अवयव विकार-शांति के निमित्त बन जाते हैं। यह है दिशा-परिवर्तन । यदि अभिमुखता कामना की ओर होगी तो वे अवयव विकार पैदा करेंगे और यदि अभिमुखता आराधना की ओर होगी तो वे अवयव शमन का कार्य करेंगे। ___ वस्तु न विकार लाती है और न विकार मिटाती है । यह सारा हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर है । यह सारा हमारी अभिमुखता पर आधृत है । हमारी दृष्टि कहां है ? हमारी दिशा कौन-सी है ? हम थोड़ा-सा मोड़ दें। मुंह जो इधर है, उसे उधर कर दें। सारा परिवर्तन घटित हो जाएगा। आचरण की बात द्वय है । पहली बात है सम्यग्दर्शन की। यह देखो कि सम्यगदर्शन प्राप्त है या नहीं ? यदि दृष्टि सम्यग है तो चरित्र-आचरण स्वतः सम्यग् हो जाएगा। यदि दृष्टि मिथ्या है तो आचरण सम्यग् होने की आशा मत करो, ज्ञान सही होने की आशा मत करो। महत्त्वपूर्ण प्रश्न है दर्शन का और दिशा-परिवर्तन का। 'परद्रव्येषु लोष्ठवत्'-क्या यह संभव है। बहुत संभव है । जिस व्यक्ति का मुंह लालसा की ओर है, राग की ओर है, उसमें विश्व के समस्त धन को बटोरने की लालसा जागृत होती है। उसे कभी कहीं संतोष नही होता । बड़े से बड़ा धनवान भी चोरी करता है, व्यवसाय में अप्रामाणिकता बरतता है। क्या उसको धन की कमी है ? नहीं। पर वह ऐसा आचरण इसलिए करता है कि उसका मुंह लालसा की दिशा में है। यदि यदि बदल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003077
Book TitleJivan ki Pothi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages202
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size8 MB
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