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जीवन की पोथी
प्रतिबिम्ब देख रहा है, उससे लड़ रहा है। यह अनन्त अतीत से चला आ रहा है । पर वह अभी तक समझ नहीं पाया है कि वह किससे लड़ रहा है। चिड़िया को भी कुछ ज्ञात नहीं है। उसे पता नहीं है कि भीतर कोई नहीं है। जो दिखाई दे रहा है, उसी का प्रतिबिम्ब है। आदमी भी छाया का जीवन जी रहा है, प्रतिबिम्ब का जीवन जी रहा है। इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा---'अन्नहा णं पासहे परिहरेज्जा'-द्रष्टा अन्यथा परिहरण करे अर्थात् पदार्थ का भोग भी अन्यथा प्रकार से करे । जैसे अद्रष्टा पदार्थ का उपयोग करता है वैसे द्रष्टा नहीं करता, अन्यथा प्रकार से करता है । वह प्रतिबिम्ब का जीवन नहीं जीता, बिम्ब का जीवन जीता है।
रात का समय । चांद उग चुका था। आदमी जा रहा था। उसकी छाया आगे की ओर पड़ रही थी। छाया को देखकर उसने सोचा कि आगेआगे कोई चल रहा है। वह उसे पकड़ने दौड़ा। छाया आगे सरक गई । वह और अधिक भय से परेशान हो गया। वह ठहरा तो छाया भी ठहर गई। वह सिकुड़ा तो छाया भी सिकुड़ गई ।
__ आदमी अपनी छाया से डर रहा है। वह अपने ही प्रतिबिम्ब से भय खा रहा है । भय इसलिए है कि वह जानता है कि वह उसी की छाया है, प्रतिबिम्ब है।
भगवान् ने कहा-जिसने देखना सीख लिया, जागरूकता की साधना की है, "अण्णहा परिहरे" को जीवनगत किया है वह पदार्थों का भोग भी करता है, पर वैसे नहीं करता, जैसे अद्रष्टा करता है । खाना, पीना, पहनना, ओढ़ना, चलना, फिरना वह अन्यथा करेगा, अलग प्रकार से करेगा। उदाहरण के लिए, जो अद्रष्टा होता है उसके सामने दृष्टिकोण होता हैस्वाद और अप्रियता का। इसलिए वह मनोज्ञ वस्तु अधिक खायेगा और अमनोज्ञ वस्तु को फेंक देगा। द्रष्टा का दृष्टिकोण होता है-उपयोगिता और आवश्यकता का । वह प्रत्येक वस्तु का भोग उपयोगिता और आवश्यकता के आधार पर करेगा। दोनों के आचरण और व्यवहार में बहुत बड़ा अंतर होता है।
व्यवहार और आचरण का बदलना ही है-दिशा-परिवर्तन । जब तक व्यवहार और आचरण नहीं बदलता तब तक दिशा का परिवर्तन नहीं होता। इसलिए दिशा-परिवर्तन का अर्थ है-व्यवहार परिवर्तन और व्यवहार परिवर्तन का अर्थ है दिशा-परिवर्तन । द्रष्टा कौन होता है, यथार्थ में कौन देखता है, इस प्रश्न का उत्तर--
"मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत् ।
आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पश्यति ॥" जो व्यक्ति परस्त्री को माता की भांति, दूसरे के धन को कंकड़-पत्थर
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