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जागरूकता : देखने का अभ्यास
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में भी हो सकती है। यह कथन एक द्वंद्व पैदा करता है। इसका समाधान है कि यदि तुमने राग-द्वेष पर विजय पा ली तो जंगल में जाकर क्या करोगे ? यदि तुमने राग-द्वेष पर विजय नहीं पाई है तो जंगल में जाकर क्या करोगे? मुख्य सूत्र है .. राग-द्वेष पर विजय पाना ।
भगवान् महावीर ने साधना का बहुत व्यापक दृष्टिकोण दिया । उन्होंने कहा. सिद्ध पन्द्रह प्रकार के होते हैं। उनमें गृहलिंगसिद्ध, अन्यलिंगसिद्ध और स्वलिंगसिद्ध-ये तीन धर्म की सार्वभौमता के प्रतीक हैं । गृहस्थ के वेश में मुक्त हुआ जा सकता है। किसी भी संन्यासी के वेश में मोक्ष प्राप्त हो सकता है । जैन मुनि के वेश में मुक्त हुआ जा सकता है। व्यवहार की दृष्टि से तीनों में अन्तर है । एक गृहस्थ के वेश में दूसरा संन्यासी के वेश में
और तीसरा जैन मुनि के वेश में है । किन्तु निश्चय की दृष्टि से उनके मुक्त होने का कारण एक ही है और वह है वीतरागता। गृहस्थ के वेश में जो मुक्त हुआ है वह वीतराग होकर ही मुक्त हुआ है। अन्य संन्यासी के वेश में जो मुक्त हुआ वह भी वीतराग होकर ही मुक्त हुआ है और जैन मुनि के वेश में जो मुक्त हुआ है, वह भी वीतराग होकर ही मुक्त हुआ है । तीनों की भूमिका अलग-अलग है, पर वीतराग भाव तीनों का एक है। वीतरागता आने के पश्चात् कैवल्य प्राप्त होता है और फिर मुक्ति प्राप्त होती है।
इस संदर्भ में हमें उस स्थिति को पकड़ना है कि व्यक्ति समाज में रहता हुआ भी कैसे अकेले रहे ? जीवन-यात्रा में समाज को कभी नहीं छोड़ा जा सकता । न बद्ध ने समाज को छोड़ा, न महावीर ने छोड़ा और न शंकर ने छोड़ा। सभी साधक समाज से संपृक्त रहे हैं, समाज के बीच रहे हैं, पर वे अकेले बनकर रहे हैं । आचार्य भिक्षु का यह सूत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है--- "गण में रहूं निरदाव अकेलो" मैं गण में रहूंगा, पर अकेला होकर रहूंगा। यह समाधान का सूत्र है। सभी विसंगतियों और द्वंद्वों का यह महत्त्वपूर्ण समाधान है।
प्रश्न होता है कि समाज और समूह में रहते हुए भी अकेले कैसे रहा जा सकता है ? इसका समाधान है देखने का अभ्यास । इसका तात्पर्य है - अपनी एकता का अनुभव । हमारा संबंध जुड़ता है माध्यमों से। पहला माध्यम है शरीर, दूसरा है परिवार और तीसरा है वैभव । ये तीन माध्यम हैं, जिनसे हमारा विस्तार होता है ।
आदमी अकेला हो नहीं सकता। उसके साथ शरीर है, मस्तिष्क है । वे निरन्तर उसका साथ देते हैं, तब अकेले होने की बात प्राप्त नहीं होती। एक आदमी हिमालय की कन्दरा में जाकर बैठ गया। अकेला है । पर क्या वह भारत के सत्तर करोड़ आदमियों के विचार-संक्रमण से बच पाएगा? विचार सारे आकाश मण्डल में छा जाते हैं । हिमालय की कन्दरा भी उनसे
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