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जागरूकता : देखने का अभ्यास
जो कुछ सामने आता है, दिखाई देता है। देखने का अभ्यास करने की जरूरत नहीं होती। बच्चा जन्म लेता है। थोड़ी देर बाद वह आंखें खोलता है, देखना प्रारम्भ कर देता है। देखने का अभ्यास हमारा जन्मगत है । प्रश्न होता है कि फिर देखने का अभ्यास क्यों ? अभ्यास उसका किया जाता है जो अनभ्यस्त है। किंतु जिसका अभ्यास है, उसके पुनः अभ्यास की क्या अपेक्षा है ? इस स्थिति में हमें देखने के मर्म को पकड़ना है।
___हम केवल आंखों से ही नहीं देखते। उसके पीछे एक और देखने वाली शक्ति होती है । वह है प्रियता और अप्रियता की शक्ति। हम किसी आकर्षण, रुचि या प्रियभाव से देखते हैं या अनाकर्षण, अरुचि और अप्रियता से देखते हैं। हम उत्सुकता से देखते हैं या अनुत्सुकता से देखते हैं। हम केवल देखना नहीं जानते । हमें केवल देखने का अभ्यास करना है। हमें यथार्थ को यथार्थ की दृष्टि से देखना है। जो जैसा है उसे उसी दृष्टि से देखने का अभ्यास करना, यह जागरूकता का अभ्यास है । जो केवल देखना नहीं जानता; वह जागरूक नहीं हो सकता । जो जागरूक होता है वह केवल देखेगा। देखने के पीछे जो प्रवाह है, वह उसको काट देगा। केवल देखेगा, एक को देखेगा !
मनुष्य का जीवन सामुदायिक है । यह एक बड़ी समस्या है। समाज को छोड़कर कोई व्यक्ति जी नहीं सकता। साधक या साधु भी समाज को छोड़कर जी नहीं सकता। उसे खाने को भोजन चाहिए, रहने को मकान चाहिए, पहनने को वस्त्र चाहिए, औषधि चाहिए। और-और भी अनेक वस्तुएं चाहिए। ये सभी चीजें समाज से प्राप्त होती हैं। कोई जंगल में जाकर बैठ जाए या हिमालय की कंदरा में जाकर बैठ जाये, वहां भी उसे फल-फूलों की आवश्यकता होती है। पानी भी चाहिए ! ये सब चीजें सामाजिक हैं। किसी एक व्यक्ति के अधिकृत नहीं हैं। जीने का अर्थ है -- समाज के साथ जीना, समाज के वातावरण में जीना, समाज की संपदा का उपभोग करते हुए जीना। क्या हिमालय किसी समाज से अलग है ? उस पर भी समाज का स्वामित्व है । जो वन-संपदा है उस पर भी किसी राष्ट्र या समाज का स्वामित्व है। ये सारी संपदाएं सामाजिक हैं। समाज या सामाजिक संपदाओं से विलग होकर कोई जी नहीं सकता। ऐसी स्थिति में अकेले की बात कैसे संभव हो सकती है ? और अकेले रहना साधना की दृष्टि
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